________________
१०४ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
क्या बात ? ईश्वर - वादियों का शुद्ध ईश्वर भी फिर तो कर्मबन्धन के द्वारा विकारी एवं संसारी हो जाएगा । अतएव शुद्ध अवस्था में किसी प्रकार से कर्मबन्धन का मानना, युक्ति - युक्त नहीं है । इसी अमर सत्य को ध्यान में रख कर जैन - दर्शन ने कर्म-प्रवाह को अनादि माना है । कर्म-बन्ध के कारण :
०
यह एक अटल सिद्धान्त है कि कारण के बिना कोई भी कार्य नहीं होता । बीज के बिना कभी वृक्ष पैदा होता है ? कभी नहीं । हाँ, तो कर्म भी एक कार्य है । अतः उसका कोई न कोई कारण भी अवश्य होना चाहिए । विना कारण के कर्म - स्वरूप कार्य किसी प्रकार भी अस्तित्व में नहीं आ सकता ।
-
-
जैन - धर्म में कर्ष-वन्ध के मूल कारण दो बतलाए हैं - राग और द्वेष । भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने प्रवचन में कहा- रागो य दोसो बीय कम्म-बीयं । अर्थात् - राग और द्व ेष ही कर्म के बीज हैं, मूल कारण हैं। आसक्ति मूलक पवृत्ति को राग, और घृणा मूलक प्रवृत्ति को द्वेष कहते हैं । पुण्य कर्म के मूल में भी किसी न किसी प्रकार की सांसारिक मोहमाया
.
-
·
-
एवं आसक्ति ही होती है । घृणा और आसक्ति से रहित शुद्ध प्रवृत्ति तो कर्म - बन्धन को तोड़ती है, बाँधती नहीं है ।
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org