SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर के सिद्धान्त : १०३ कर्म किसी - किसी विशेष कर्म की अपेक्षा से सादि भी है, और अपने परम्परा प्रवाह की दृष्टि से अनादि भी है । - ० कर्म का प्रवाह कब चला ? इस प्रश्न के उत्तर में जैन दर्शन का कहना है कि कर्मप्रवाह से अनादि है । आत्मा अनादि है, तो उसके सुख - दुःख का जन्म मरण का, अन्य भी अनेक परिवर्तनों का हेतु कर्म चक्र भी अनादि है । और इधर प्रत्येक प्राणी अपनी प्रत्येक क्रिया में नित्य नए कर्म-बन्धन करता रहता है । अतः व्यक्ति की अपेक्षा से कर्म सादि भी कहा जाता है । ० भविष्यत्काल के समान अतीतकाल भी असीम एवं अनन्त है । अतएव | अतएव भूतकालीन अनन्त का वर्णन 'अनादि' शब्द के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से हो नहीं सकता । इसलिए कर्म - प्रवाह को अनादि माने बिना दूसरी कोई गति नहीं है । यदि हम कर्म-बन्ध की अमुक निश्चित तिथि मानें, तो प्रश्न उठता है कि उससे पहले आत्मा किस रूप में था ? यदि शुद्ध रूप में था, कर्म - बन्धन से सर्वथा रहित था, तो फिर • शुद्ध आत्मा को कर्म कैसे लगे ? यदि शुद्ध को भी कर्म लग जाएँ, तो फिर शुद्ध होने पर मोक्ष में भी कर्म - बन्धन का होना मानना पड़ेगा। ऐसी दशा में मोक्ष का मूल्य ही क्या रहेगा ? केवल मुक्त आत्मा की ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001422
Book TitleMahavira Siddhanta aur Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Discourse, N000, & N005
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy