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१०२ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
पुण्य बाँधता है ? नहीं, वह भयंकर पाप - कर्म का बन्ध करता है। अन्दर में दुर्वृत्ति का विष रख कर बाहर में कोई कितना ही अमृत-वितरण का नाटक करे, उससे कुछ भी पुण्य-कर्म नहीं हो सकता। ० अतएव महावीर का कर्म - सिद्धान्त कहता है कि पाप और पुण्य का बन्ध किसी भी वाह्य क्रिया पर आधारित नहीं है। बाह्य क्रियाओं की पृष्ठ - भूमिस्वरूप अन्तःकरण में जो शुभाशुभ भावनाएँ हैं, वे ही पाप और पुण्य - बन्ध की खरी कसौटी है। क्योंकि जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसा ही शुभाशुभ कर्म - फल मिलता है
...'बादशी भावना बस्स, सिद्धिर्भवति तादशी' कर्म का अनादित्व ० दार्शनिक क्षेत्र में यह प्रश्न चिरकाल से चक्कर काट रहा है कि कर्म सादि हैं अथवा अनादि ? सादि का अर्थ है--आदिवाला, जिसका एक दिन प्रारम्भ हुआ हो । अनादि का अर्थ है-आदि • रहित, जिसका कभी भी प्रारम्भ न हुआ हो, जो अनन्त काल से चला आ रहा हो। भिन्न-भिन्न दर्शनों ने इस सम्बन्ध में भिन्न - भिन्न उत्तर दिए हैं। जैन • दर्शन भी इस प्रश्न का अपना एक अकाट्य उत्तर रखता है। वह अनेकान्त की भाषा में कहता है कि---कर्म सादि भी है, और अनादि भी। इसका स्पष्टीकरण यह है कि
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