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महावीर के सिद्धान्त : १०१
पाप क्या और पुण्य क्या ? ० साधारण जनता यह समझती है कि किसी को कष्ट एवं दुःख देने से पाप - कर्म का बध होता है। परन्तु जब हम दार्शनिक दृष्टि से कर्मवाद का गम्भीर चिन्तन करते हैं, तो पाप और पुण्य की यह उपर्युक्त कसौटी खरी नहीं उतरती है, क्योंकि कितनी ही बार उक्त कसौटी के सर्वथा विपरीत परिणाम भी होते हैं। ० एक मनुष्य किसी को कष्ट देता है, जनता समझती है कि वह पाप - कर्म बाँध रहा है, परन्तु वह बांधता है अन्तरंग में पुण्य - कर्म । और कभी कोई मनुष्य किसी को सुख देता है, तो ऊपर से वह अच्छा लगता है, परन्तु बाँध रहा है पाप - कर्म । इस भाव को समझने के लिए कल्पना कीजिए-एक डॉक्टर किसी फोड़े के रोगी का आपरेशन करता है उस समय रोगी को कितना कष्ट होता है, कितना चिल्लाता है ? परन्तु डॉक्टर यदि शुभभाव से चिकित्सा करता हो, तो वह पुण्य बांधता है, पाप नहीं । माता - पिता हित - शिक्षा के लिए अपनी सन्तान को ताड़ते हैं, नियंत्रण में रखते हैं, तो क्या वे पाप बाँधते हैं ? नहीं, वे पुण्य बाँधते हैं। इसके विपरीत एक मनुष्य ऐसा है, जो दूसरों को ठगने के लिए मीठा बोलता है, सेवा करता है, भजन - पूजन भी करता है, तो क्या वह
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