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प्रकाशकीय
" महावीर : सिद्धान्त और उपदेश", प्रेमी पाठकों के कर-कमलों में प्रस्तुत करते हुए मेरा हृदय हर्षातिरेक से गद्गद हो रहा है । साहित्य के माध्यम से जनसेवा करने में तन का श्रम, मन का समर्पण और आत्मा की तपस्या मुख्य रहती है । इस सेवा में तन को तपस्वियों की तरह तपाना पड़ता है - मन को बार-बार एकाग्रता की श्रृंखला में बांधना पड़ता तब कहीं होती है अन्ततः साहित्य - सेवा |
ज्ञान- पीठ का अब तक जिन प्रवचनकार मुनियों एवं विद्वान लेखकों से सम्बन्ध रहा है, वे सब साहित्यिक साधना की इसी कसौटी के परखे हुए साहित्य तपस्वी रहे हैं ।
पूज्य उपाध्याय कविश्री अमरमुनिजी महाराज की प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में, मैं अपनी ओर से क्या लिंबू' ! समूचा समाज ही आपकी सिद्धहस्त लेखनी की प्रांजल भाषा, शैली, विचारों की मौलिकता और विषय - विश्लेषण की गंभीरता से परिचित है । फिर भी प्रकाशक के नाते मुझे यही कहना है- महावीर - चरित अद्यावधि बहुत से प्रकाशित हुए हैं, पर प्रस्तुत संकलन की अपनी एक अनूठी ही विशेषता है ।
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