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१८ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
कर्म-सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप :
मनुष्य जव किसी कार्य को आरम्भ करता है, तो उसमें कभी - कभी अनेक विघ्न और बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य का मन चंचल हो जाता है और वह घबरा उठता है। इतना ही नहीं, वह किंकर्तव्य - विमूढ़ - सा बन कर अपने आसपास के संगी-साथियों को अपना शत्रु समझने की भल भी कर बैठता है। फल - स्वरूप अंतरंग कारणों को भुल कर वाहरी कारणों से जमता रहता है। • ऐसी दशा में मनुष्य को पथभ्रष्ट होने से बचाकर सत्पथ पर लाने के लिए किसी विशिष्ट चिन्तन की बड़ी भारी आवश्यकता है। यह चिन्तन और कोई नहीं, कर्म-सिद्धान्त ही हो सकता है। कर्मवाद के अनुसार मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि जिस अन्तरंग - भूमि में विघ्न-रूपी विषवक्ष अंकुरित
और फलित हुआ है, उसका बीज भी उसी भूमि में होना चाहिए। बाहरी शक्ति तो जल और वायु की भाँति मात्र निमित्त कारण हो सकती है। असली कारण तो मनुष्य को अपने अन्तर में ही मिल सकता है, बाहर नहीं। और वह कारण अपना किया हुआ कर्म ही है, और कोई नहीं। अस्तु, जैसे कर्म किए हैं, वैसा ही तो उनका फल मिलेगा। नीम का वृक्ष
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