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________________ महावीर के सिद्धान्त : ६७ और शराब के अतिरिक्त किसी तोसरे ईश्वर आदि की भी कभी आवश्यकता पड़ी है ? कभी नहीं। २. ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन है । तब दोनों में भेद क्या रहा ? भेद केवल इतना ही है कि जीव अपने कर्मो से बँधा है और ईश्वर उन बन्धनों से मुक्त हो चुका है। एक कवि ने इसी बात को कितनी सुन्दर भाषा में अभिव्यक्त किया है ---- " आत्मा परमात्मा में कर्म ही का भेद है ? काट दै गर कर्म तो फिर भेद है ना खेद है।" जैन-दर्शन कहता है कि ईश्वर और जीव के बीच विषमता का कारण औपाधिक कर्म है। उसके हट जाने पर विषमता टिक नहीं सकती। अतएव कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर बन जाते हैं। सोने में से मैल निकाल दिया जाए, तो फिर मलिन सोने के शुद्ध सोना होने में क्या आपत्ति है ? आत्मा में से कर्ममल को दूर करना चाहिए, फिर आत्मा ही शुद्ध परमात्मा बन जाता है। ० निष्कर्ष यह निकला कि प्रत्येक जीव कर्म करने में जैसे स्वतन्त्र है, वैसे कर्मफल भोग में भी वह स्वतन्त्र ही रहता है। ईश्वर का वहाँ कोई हस्तक्षेप नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001422
Book TitleMahavira Siddhanta aur Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Discourse, N000, & N005
File Size6 MB
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