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९६ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
१. आत्मा जैसा कर्म करता है, कर्म के द्वारा उसे वैसा ही फल मिल जाता है । यह ठीक है कि कर्म स्वयं जड़ - रूप है और बुरे कर्म का फल भी कोई नहीं चाहता । परन्तु यह बात ध्यान देने की है कि चेतना के संसर्ग से कर्म में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिससे वह अच्छे - बुरे कर्मों का फल जीव पर प्रकट करता है । जैन धर्म यह कब कहता है कि कर्म, चेतना के संसर्ग के बिना भी फल देता है । वह तो यहीं कहता है कि कर्म फल देने में ईश्वर का कोई हाथ नहीं है ।
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कल्पना कीजिए कि मनुष्य धूप में खड़ा है । अत्यन्त गर्म चीज खा रहा है, और यह चाहता है कि मुझे प्यास न लगे । यह कैसे हो सकता है ? एक सज्जन मिर्च खा रहे हैं और चाहते हैं कि मुँह न जले क्या, यह सम्भव है ? एक आदमी शराब पीता है, और साथ ही चाहता है कि नशा न चढे । क्या यह व्यर्थ की कल्पना नहीं है ? केवल चाहने और न चाहने भर से कुछ नहीं होता है । जो कर्म किया है उसका फल भी भोगना आवश्यक है । क्रिया की प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी है । इसी विचारधारा को लेकर जैन दर्शन कहता है कि जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भी भोगता है । शराब आदि का नशा चढ़ाने के लिए क्या शराबी
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