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६४ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
यद्यपि न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग तथा वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता और कर्मफल का दाता माना गया है। परन्तु जैन - दर्शन सृष्टि - कर्ता और कर्मफल • दाता के रूप में ईश्वर की कोई कल्पना ही नहीं करता। जैन - धर्म का कहना है कि जीव जैसे कर्म करने में स्वतन्त्र है, वैसे ही उसके फल भोगने में भी स्ततन्त्र है। मकड़ी खुद ही जाला पूरती है और खुद ही उसमें फंस भी जाती है। इस सम्बन्ध में आत्मा का लक्षण बताते हुए, एक विद्वान् आचार्य क्या ही अच्छा कहते हैं.... "स्वयं कर्म करोत्यात्मा,
स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे,
स्वयं तस्माद् विमुच्यते ।" यह आत्मा स्वयं ही कर्म करने वाला है और स्वयं हो उसका फल भोगने वाला भी है। स्वयं ही संसार में परिभ्रमण करता है, और एक दिन धर्म - साधना के द्वारा स्वयं ही संसार के बन्धन से मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है। आक्षेप और समाधान :
ईश्वरवादियों की ओर से कर्मवाद पर कुछ आक्षेप भी किये गए हैं, परन्तु जैन - धर्म का यह महान्
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