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नैतिकता का मूलाधार : कर्मबाद
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दार्शनिक वादों की दुनिया में कर्मबाद भी अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है । भगवान् महावीर कान्तिक विचारधारा में तो कर्मवाद का अपना एक विशेष स्थान रहा है। बल्कि, यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि कर्मवाद के सर्मा को समझे बिना जैन दर्शन का यथार्थ ज्ञान हो ही नहीं सकता । जैन-धर्म तथा जैन - संस्कृति का भव्य भवन कर्मवाद की गहरी एवं सुदृढ़ नींव पर ही टिका हुआ है । अतः आइए, कर्मवाद के सम्बन्ध में कुछ मुख्य मुख्य बातें समझ लें ।
कर्मवाद का ध्येय
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कर्मवाद की धारणा है कि संसारी आत्माओं की सुख दुःख, सम्पत्ति विपत्ति और ऊँच-नीच आदि जितनी भी विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, उन सभी में काल एवं स्वभाव आदि की तरह कर्म भी एक प्रबल कारण है। जैन दर्शन जीवों की इन विभिन्न परिणतियों में ईश्वर को कारण न मानकर, कर्म को ही कारण मानता है । अध्यात्म-शास्त्र के मर्मस्पर्शी सन्त देवचन्द्रजी ने कहा है
"रे जीव साहस आदरो, मत थावो तुम दीन; सुख - दुखसम्पद्-आपदा, पूरब कर्म-अधीव ।"
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