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८८ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
में सर्वत्र कर्म का ही एकछत्र साम्राज्य है । देखिए - एक माता के उदर से एक साथ दो बालक जन्म लेते हैं, उनमें एक बुद्धिमान होता है, दूसरा मूर्ख । एक सुरूप है, दूसरा कुरूप है । एक लोभी- लालची, दूसरा उदार - दानी । बाहर का वातावरण तथा रंग - ढंग एक होने पर भी यह भेद क्यों हैं ? इस भेद का कारण कर्म है । मनुष्य के नाते बराबर होने पर भी मानवमानव में बहुत बड़ा अन्तर है, बहुत बड़ा भेद है । इस अन्तर का और कोई हेतु नहीं है । कर्म ही इस भेद का प्रमुख कारण है। हर प्राणी के अपने अपने कर्म है । राजा को रंक और रंक को राजा बनाना, कर्म के बाएं हाथ का खेल है । तभी तो एक विद्वान् ने कहा है ' गहना कर्मणो गतिः' अर्थात् कर्म की गति बड़ी गहन है ।
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पुरुषार्थवाद :
इस बात का भी संसार में कम महत्त्व नहीं है । यह ठीक है कि जनता ने पुरुषार्थवाद के दर्शन को अभी तक अच्छी तरह समझा नहीं है और उसने कर्म, स्वभाव तथा काल आदि को ही अधिक महत्त्व दिया है । परन्तु पुरुषार्थवाद का कहना है कि बिना पुरुषार्थ के संसार का एक भी कार्य सफल नहीं हो सकता । संसार में जहाँ कहीं भी, जो भी कार्य होता देखा जाता है, उसके मूल में कत्तों का अपना पुरुषार्थ
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