SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश उनमें परस्पर प्रीतिमूलक सहभावना का एक मंच तैयार कर सकता है । इस सम्बन्ध में जैनाचार्य कहते हैं- "सर्वे नया अपि विरोधभृतो मिथस्तेसम्भूय साधु समयं भगवन् ! भजन्ते । भूपा इव प्रतिभटा भुवि सार्वभौम-पादाम्बुजं प्रधनयुक्तिपराजिता द्राक् ।। " " जैसे छोटे - छोटे राजा लोग परस्पर में चाहें कितने ही कलह एवं संघर्ष रत हों, परन्तु चक्रवर्ती - सम्राट् के एकछत्र शासन में वे आपस का वैर-विरोध भूल कर एकजुट हो जाते हैं, एक दूसरे की मर्यादा का ध्यान रखते हैं, परस्पर सहयोगी होते हैं, उसी प्रकार विश्व के सभी एकान्तवादी मत मतान्तर चाहे परस्पर में कितने ही विरोधी दृष्टिगत होते हों, एक दूसरे का खण्डन करते हों, परन्तु स्याद्वादरूपी चक्रवर्ती के शासन में तो वे सब एक दूसरे का सम्मान करते हुए शान्ति पूर्वक अविरोधी, अविरोधी ही नहीं, सहयोगी रहकर सत्य की साधना में हृत्पर हो जाते हैं । - - - - - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001422
Book TitleMahavira Siddhanta aur Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Discourse, N000, & N005
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy