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भक्तामर-स्तोत्र
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: ४२ : जिस रन माहिं भयानक, शब्द कर रहे तुरंगम । घनसम गज गरजाहिं, मत्त मानों गिरि जंगम ॥ अति कोलाहलमाहि, वात जहँ नाहिं सुनीजै । राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै ॥ नाथ तिहारे नाम ते, सो छिन मांहिं पलाय । ज्यों दिनकर परकाश तें, अन्धकार विनशाय ।।
मारे जहाँ गयंद, कुम्भ हथियार विदारे । उमगे रुधिर - प्रवाह वेग जल से विस्तारे।। हो तिरन असमर्थ, महाजोधा बलपूरे । तिस रन में जिन तोय, भक्त जे हैं नर - सूरे । दुर्जय अरिकुल जीत के, जय पावें निकलंक । तुम पदपंकज मन बसे, ते नर सदा निशंक ॥
: ४४ : नक्र - चक्र मगरादि, मच्छ - करि भय उपजावै । जामें बड़वा - अग्नि, दाहत नीर जलावै ।। पार न पाव जासु, थाह नहिं लहिये। गरजै अति गम्भीर, लहर की गिनति न ताकी ।। सुखसों तिरै समुद्र को, जे तुमगुण सुमिराहिं । लोल कलोलन के शिखर, पार यान लेजाहिं ॥
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