________________
७०
भक्तामर स्तोत्र
अति मदमत्त गयंद कुम्भथल नखन विदार। मोती - रक्त समेत, डारि भतल सिंगारै ॥ बाँकी दाढ़ विशाल, वदन में रसना लोले । भीम भयानक - रूप देखि जन थरहर डोले ॥ ऐसे मगपति पगतलें, जो नर आओ होय । शरन गहें तुम चरन को, बाधा करै न सोय ।।
४० : प्रलय पवन कर उठी आग जो तास पटंतर । बमैं फुलिंग शिखा उत्तंग परजलै निरन्तर ॥ जगत समस्त निगल्ल, भस्म करहेगी मानो । तड़तड़ाट दव - अनल जोर चहुदिशा उठानो । सो इक छिन में उपशमें, नाम - नीर तुम लेत। होय सरोवर परिनमें, विकसित कमल समेत ।।
कोकिल - कंठ समान श्यामतन क्रोध जलता। रक्त - नयन फुकार मार विषकन उगलता ।। फन को ऊँचा करै, वेग ही सन्मुख धाया। तव जन होय निशंक, देख फनपति को आया ।। जो चापै निज पांवतै, व्या विष न लगार। नागदमनि तुम नाम की, है जिनके आधार ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org