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________________ भक्तामर स्तोत्र अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने वाली जैसी प्रचण्ड प्रभा दिन के कर्ता सूर्य में होती है, वैसी प्रभा आकाश में चमकने वाले दूसरे ग्रह - नक्षत्रों में कहाँ होती है ? टिप्पणी ५१ संसार में देवों की कमी नहीं है। हजारों लाखों देव जिधर देखिए उधर ही भोले भक्तों के द्वारा पूजा पा रहे हैं, परन्तु उनका देवत्व भगवान् वीतराग- देव के समक्ष कुछ भी अस्तित्व नहीं रखता । आकाश में अनेक तारे चमकते हैं, परन्तु सूर्य के समान अखण्ड प्रकाश का पुञ्ज और कौन है ? कोई भी नहीं । सूर्य की अपनी निराली ही दिव्यता है । इच्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल - मत्तभ्रमद् - भ्रमरनाद विवृद्धकोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं, दृष्टवा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥४८॥ अन्वयार्थ - ( इच्योतन्-मदाविल-विलोलकपोलमूलमत्तभ्रमद् भ्रमरनाद-विवृद्धकोपम् ) झरते हुए मदजल से मलिन और चंचल गालों के मूल भाग में मत्त होकर मंडराते हुए भौरों के गुंजार से जिनका कोप बढ़ गया है, ऐसे (ऐरावताभम् ) ऐरावत हाथी की तरह (उद्धतम् ) उद्दण्ड ( आप - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
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