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भक्तामर स्तोत्र
कदम रखते हैं, वहाँ-वहाँ भक्त देवता पहले ही स्वर्णकमलों की रचना कर देते हैं । इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र ! धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक् कुतो ग्रह- गणस्य विकाशिनोऽपि ॥ ३७॥
अन्वयार्थ -- ( जिनेन्द्र ! ) हे जिनेश्वरदेव ! ( इत्थं ) इस प्रकार ( धर्मोपदेशनविधौ ) धर्मोपदेश के कार्य में (यथा ) जैसी (तव) आपकी ( विभूतिः ) विभूति - दिव्य वैभव प्राप्ति ( अभूत) हुई थी, (तथा) वैसी ( न परस्य ) किसी दूसरे की नहीं हुई थी ( प्रहतान्धकारा ) अन्धकार को नष्ट करने वाली (यादृक् ) जैसी ( प्रभा) कान्ति ( दिनकृतः भवति) सूर्य की होती है ( तादृक् ) वैसी ( ग्रहगणस्यविकाशिनोऽपि ) प्रकाशमान ग्रह गण की भी ( कुतः ) कहाँ से हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती ॥३७॥
भावार्थ हे जिनेश्वर देव ! धर्मोपदेश करते समय पूर्वोक्त रूप में जैसी आपकी दिव्य विभूति हुआ करती थी, वैसी दूसरे राग-द्व ेषी देवों की कभी नहीं हुई ।
आपकी और दूसरे देवों की तुलना ही क्या ?
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