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भक्तामर स्तोत्र
उच्चरशोकतरु - संश्रितमुन्मयूख--
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्व-वति ॥२८॥ अन्वयार्थ --- (उच्चैरशोकतरु - संश्रितम्) ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित तथा ( उन्मयूखम् ) जिसकी किरणें ऊपर को फैल रही हैं. ऐसा ( भवतः अमलम् रूपम् ) आपका उज्ज्वल रूप (स्पष्टोल्लसत्किरणम् ) जिसकी किरणें स्पष्ट रूप से शोभायमान हैं और ( अस्ततमोवितानम्) जिसने अन्धकार - समुह को नष्ट कर दिया है, ऐसे (पयोधरपार्श्व - वति) मेघ के निकट विद्यमान (रवेः बिम्बम् इव) सूर्य के बिम्ब की तरह (नितान्तम् ) अत्यन्त (आभाति) शोभित होता है ॥२८॥
भावार्थ हे प्रभो ! अशोक वक्ष के नीचे ऊपर की ओर चमकती हुई किरणों वाला आपका निर्मल रूप, अतीव भव्य मालम होता है। जैसा कि स्पष्ट रूप से चमकती हुई किरणों वाला एवं अन्धकार - समूह को नष्ट करने वाला सूर्य : मण्डल सघन बादलों के नीचे शोभित होता है।
टिप्पणी तीर्थंकर देवों के आठ महाप्रातिहार्यों में से यह पहले अशोक
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