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भक्तामर स्तोत्र
वृक्ष नामक प्रातिहार्य का सुन्दर वर्णन है । अशोक वृक्ष के नीचे रहे हुए भगवान् के दिव्य शरीर की उपमा, बादलों के नीचे रहे हुए सूर्य से बहुत ही भव्य दी गई है । सूर्य की किरणों से बादल चमकते हैं, तो भगवान् के दिव्य तेज से अशोक वृक्ष के पल्लव भी चमक उठते हैं ।
यद्यपि बादल बहुत नीचे हैं, सूर्य बहुत ऊपर है। परन्तु दृष्टि भ्रम से ऐसा मालूम होता है, कि सूर्य नीचे है और बादल ऊपर हैं । आचार्य जी ने लौकिक कल्पना को लक्ष्य में रख कर ही ऊपर का वर्णन किया है। सिंहासने मणिमयूख - शिखाविचित्रे,
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं वियद्-विलसदंशुलता - वितानं,
तु गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२६॥
अन्वयार्थ ( मणिमयूख शिखा विचित्रे ) रत्नों की किरणों के अग्रभाग से चित्र-विचित्र ( सिंहासन ) सिंहासन पर (तव) आपका (कनकावदातम्) सोने की तरह उज्ज्वल ( वपुः ) शरीर ( तुगोदयाद्रि शिरसि ) ऊँचे उदयाचल के शिखर पर (वियद-विलसदंशुलता-वितानम्) आकाश में जिसकी किरण रूपी लताओं का समूह शोभायमान है, उस (सहस्ररश्मेः) सूर्य के ( बिम्बम् इव ) मण्डल की तरह (विभ्राजते) सुशोभित हो रहा है ।।२६:
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