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भक्तामर स्तोत्र
कारण जिन्हें गर्व हो गया हैं, उन (दोष) दोषों के द्वारा ( स्वप्नान्तरेऽपि ) सपने में भी ( कदाचित् अपि) कदापि ( न ईक्षित: असि ) आप नहीं देखे गए हैं, तो ( अत्र ) इस विषय में ( कः विस्मयः ) क्या आश्चर्य है ? कुछ भी नहीं ||२७||
भावार्थ - हे मुनीश्वर ! विश्व के सम्पूर्ण सद्गुणों ने आप में आश्रय पाया है, अतएव दोषों को आप में जरा भी स्थान नहीं मिला । फलतः वे अन्य देवताओं के यहाँ आश्रय पाने की इच्छा से पहुंचे । वहाँ यथेष्ट आश्रय पाकर वे घमंडी हो गए, फिर तो स्वप्न में भी कभी आपको लौट कर देखने नहीं आए। इसमें कौनसी आश्चर्य की बात है ? जिसे अन्यत्र आदर का स्थान मिलेगा, वह भला आश्रय न देने वाले व्यक्ति के पास लौट कर क्यों आएगा ?
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टिप्पणी
आचार्य बताना चाहते हैं कि भगवान् में केवल गुण ही गुण हैं । दोषों का लेशमात्र भी अंश नहीं है, और उधर दूसरे संसारी देवों में दोष ही दोष हैं, गुण नाममात्र को भी नहीं हैं । आचार्य की भावोद्घाटन - शैली बड़ी ही मार्मिक है । देखिए, किस व्यंग के साथ अपने इष्टदेव के महत्त्व की स्थापना की है ।
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