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________________ वोर-स्तुति : हाँ, तो प्रस्तुत श्लोक में भी इसी प्रकार चार स्थान पर विरोधाभास अलंकार है भगवान तप्त स्वर्ण के समान कान्तिवाले हैं, फिर वे अपगतंतनु कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि अपगततनु का अर्थ है'शरीर से रहित ।' भला शरीर ही नहीं, तो उसकी स्वर्ण के समान कांति कहाँ से होगी? यह विरोध है। परिहार के लिए अपगततनु का अर्थ शरीर रहित न लेकर, कृश शरीर लिया जाता है। भगवान उग्र और दीर्घ तप करते-करते कृश शरीर हो गए थे, फिर भी तपस्तेज के कारण उनका शरीर तप्त स्वर्ण के समान देदीप्यमान था। अथवा अपगततनु का अर्थ शरीर-रहित भी लिया जा सकता है और इस विरोध का परिहार शुद्ध निश्चय दृष्टि के द्वारा किया जा सकता है ! भगवान शुद्ध द्रव्य दृष्टि से केवल आत्मा ही थे, शरीर की मोह-माया से सर्वथा रहित थे । जैसे वैदिक-साहित्य में जनक राजा को मोह-रहित होने के कारण शरीर के होते हुए भी विदेह-देहरहित कहा जाता था, वैसे यहाँ पर भी विरोधपरिहार कर लेना चाहिए। ' विचित्रात्मा का अर्थ होता है -'अनेक' और एक का अर्थ है, 'एक' । अब प्रश्न है कि जब भगवान विचित्रात्मा हैंअनेक हैं फिर भी एक कैसे हो सकते हैं ? 'विरोध-परिहार के लिए विचित्रात्मा का अर्थ 'अनेक' न लेकर 'विलक्षण आत्मा' अर्थ लेना चाहिए, और 'एक' का अर्थ 'अद्वितीय' । अब विरोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001420
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1981
Total Pages58
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & agam_related_other_literature
File Size2 MB
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