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वीर-स्तुति
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कनत्स्वर्णाभासो-ऽप्यपगततनुर् ज्ञान-निवहो, विचित्रात्माऽप्येको नृपतिवरसिद्धार्थतनयः । अजन्माऽपि श्रीमान् विगतभवरागोऽद्भुतगतिर महावीर स्वामी नयनपथगामी भवतु नः॥
तपे सोने-जैसे तनु-रहित भी ज्ञान-गृह हैं, अकेले नाना भी जनि-रहित सिद्धार्थ-सुत हैं। महाश्री के धारी विगत-भव-रागी अति-गति,
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी सतत हों।
जो तप्त स्वर्ण के समान उज्ज्वल कान्तिमान होते हुए भी अपगत तनु-शरीर के मोह से रहित थे, ज्ञान के पुज थे, विचित्र आत्मा-विलक्षण आत्मा होते हुए भी एक-अद्वितीय थे, राजा सिद्धार्थ के पुत्र होते हुए भी अजन्मा-जन्म रहित थे, श्रीमान्–शोभावान होते हुए भी संसार के राग से रहित. थे अद्भुत ज्ञानी थे, वे भगवान महावीर स्वामी सर्वदा हमारे नयन-पथ पर विराजमान रहें। टिप्पणी-प्रस्तुत पद्यः में विरोधाभास अलंकार है। विरोधामास का अर्थ है -दो बातों में भले ही ऊपर से परस्पर विरोध
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