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वोर-स्तुति से भूइपन्ने अणिए अचारी, ओहंतरे धीरे अणंत-चक्खू । अगात्तरे तप्पई सूरिए वा, वइरोयणिंदे व तमं पगासे ॥६॥
श्री वीर जग-रक्षाव्रती अनियत विहारी थे प्रखर । भवसिन्धु-तीर्ण अनन्त-ज्ञानी धैर्य-धारी थे प्रवर ॥ सुविशुद्ध तप के श्रेष्ठ कर्ता सूर्य - पावक - तेजसम । सद्ज्ञान का सुप्रकाश कोना नष्ट कर अज्ञानतम ॥६॥
श्रेष्ठमति मंगलमयी, प्रतिबन्ध-शून्य विहार था, पार भवसागर किया, अविचल अदम्य विचार था । ज्ञान-ज्योति अनन्त सूर्य-समान तेजस्वी प्रवर, वर विरोचन-तुल्य चमके अन्धकार विनाश कर ।।६।।
भगवान महावीर की प्रज्ञा विश्व का मंगल करनेवाली थी। उनका विहार सब प्रकार के सांसारिक प्रतिबन्धों से रहित था । वे संसार सागर को तैरने वाले, सब प्रकार के उपसर्ग और परिपहों को समभाव से सहन करने में धीर, अनन्त पदार्थों के ज्ञाता, सूर्य के समान अखण्ड तेजस्वी, और वैरोचन इन्द्र अथवा प्रचंड वैरोचन अग्नि के समान अज्ञान अन्धकार को नष्ट कर ज्ञान का प्रकाश करने वाले थे ।
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