________________
40
जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान बल से वर्तमानमात्रग्राही इन्द्रिय भी अतीतावस्थाविशिष्ट वर्तमान को ग्रहण कर सकती है अतः प्रत्यभिज्ञा की जनक बन सकती है। जैन तार्किक नैयायिकों के इस मत का खण्डन करके प्रत्यभिज्ञा को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्थापित करते हैं | 35
नैयायिक 'उपमान' नामक स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार करते हैं । वृद्धजन से ज्ञातअज्ञात दो वस्तुओं के सादृश्य को वृद्धवाक्य द्वारा जानने के पश्चात् अज्ञात वस्तु में जब उस सादृश्य का प्रत्यक्ष होता है तब वृद्धवाक्य का स्मरण होता है, परिणामत: वह वस्तु अमुक पदवाच्य है ऐसा जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह उपमिति है । इस प्रकार सादृश्यप्रत्यक्ष और वृद्धवाक्यस्मरण से उत्पन्न होनेवाला संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध का ज्ञान उपमिति है । जैन तार्किक नैयायिकसम्मत इस उपमान प्रमाण का प्रत्यभिज्ञा में अन्तर्भाव करते हैं, क्योंकि जैन तार्किक प्रत्यक्ष - स्मरणमूलक जितने संकलनाज्ञान हैं उन सभी का समावेश प्रत्यभिज्ञा में करते हैं 136.
तर्क - उपलम्भ (प्रत्यक्ष ) और अनुपलम्भ से उत्पन्न होनेवाला और साध्य - साधन के अविनाभाव ( व्याप्ति) सम्बन्ध को ग्रहण करनेवाला ज्ञान तर्क है । 37 संक्षेप में व्याप्तिग्राही ज्ञान तर्क है । व्याप्ति सर्वोपसंहारवाली होती है । सर्व काल में सर्व देश
धूम है वह अग्नि से ही उत्पन्न होता है, अग्नि के अभाव में कही भी कभी भी धूम नहीं हो सकता - ऐसा सर्वोपसंहारी अविनाभाव तर्क प्रमाण का विषय है । प्रत्यक्ष प्रमाण रसोईघर आदि में अनेक बार अग्नि के सम्बन्ध को प्रत्यक्ष भले करे परन्तु उस सम्बन्ध की त्रैकालिकता और सार्वत्रिकता प्रत्यक्ष का विषय नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष सन्निकृष्ट वर्तमान विषय को ही जानता है और वह मुख्यतः अविचारक है। 28 अनुमान प्रमाण से भी इस व्याप्ति का ग्रहण सम्भवित नहीं है क्योंकि स्वयं अनुमान की उत्पत्ि व्याप्ति के ग्रहण के पश्चात् होती है। एक अनुमान की व्याप्ति यदि दूसरे अनुमान से गृहीत होती है ऐसा मानें तो इस दूसरे अनुमान की व्याप्ति को ग्रहण करने के लिए तीसरे अनुमान की और तीसरे अनुमान की व्याप्ति को ग्रहण करने के लिए चौथे अनुमान की आवश्यकता होगी। इस प्रकार अनवस्थादोष होगा । अत: व्याप्तिग्राही प्रमाण के रूप में तर्क को मानना आवश्यक है । 39 बौद्ध तार्किक निर्विकल्प प्रत्यक्ष के पश्चात् उत्पन्न होनेवाले सविकल्प प्रत्यक्ष को ही व्याप्तिग्राही मानते हैं । जैन तार्किक बौद्ध का प्रतिषेध करते हुए कहते हैं कि सविकल्प ज्ञान स्वयं ही बौद्ध मतानुसार अप्रमाण है तो इसके द्वारा गृहीत व्याप्ति में विश्वास कैसे कर सकते हैं ?40 नैयायिक तर्क को न तो प्रमाण मानते हैं या न तो अप्रमाण । उनके मतानुसार तर्क तो प्रमाण का अनुग्राहक है । नैयायिको के इस मत का खण्डन करते हुए जैन तार्किक कहते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org