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________________ जैनदर्शन में मतिज्ञान 41 हैं कि जो स्वयं प्रमाण न हो वह अन्य प्रमाणों का अनुग्रह कैसे कर सकता है ?41 जैन तार्किकों के अनुसार तर्क स्वयं अविसंवादी है एवं अविसंवादी अनुमान का जनक भी है अत: वह प्रमाण है, स्वतन्त्र प्रमाण है। सम्पूर्णत: साध्य और साधन के सर्वोपसंहारी व्याप्तिसम्बन्ध को ग्रहण करनेवाले तर्क को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकृत करना चाहिए । जहाँ जहाँ साधन का प्रत्यक्ष होता है वहाँ वहाँ साध्य का भी प्रत्यक्ष होता हैं और जहाँ जहाँ साध्याभाव का अनुपलम्भ से ग्रहण होता है वहाँ वहाँ साधनाभाव का भी अनुपलम्भ से ग्रहण होता है - इस उपलम्भ-अनुपलम्भ से तर्क उत्पन्न होता है। व्याप्तिग्राही यह तर्क रूप ज्ञान अविसंवादी होने से स्वतन्त्र प्रमाण है, ऐसा जैन तार्किक मानते हैं। ___ अनुमान - भगवतीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में चार प्रमाणों में अनुमान प्रमाण का उल्लेख है। अनुयोगद्वारसूत्र तीन प्रकार के अनुमान गिनाता है - पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत्; बाद में प्रत्येक को सोदाहरण समझाता है।43 वह, अनुमान के विषय की कालिक स्थिति के आधार पर भी अनुमान के तीन भेद करता है - अतीतग्राही, वर्तमानग्राही और अनागतग्राही ।44 स्थानांगसूत्र में चार प्रकार के हेतु गिनाये हैं - विध्यात्मक साध्यवाला विध्यात्मक हेतु, निषेधात्मक साध्यवाला विध्यात्मक हेतु, विध्यात्मक साध्यवाला निषेधात्मक हेतु और निषेधात्मक साध्यवाला निषेधात्मक हेतु 145 अनुमान के अवयवों के विषय में दशवैकालिकनियुक्ति में दो. तीन. पाँच और दस अवयवों के चार विकल्प स्वीकारे गये हैं। वहाँ दस अवयवों की दो अलग तालिकाएँ हैं।46 इस प्रकार आगमों में अनुमान विषयक विशेष विचारणा नहीं है। ___ बौद्ध तार्किकों एवं नैयायिकों ने अनुमान विषयक पुख्त विचारणा करके अनुमान सिद्धान्त की स्थापना कर दी उसके बाद जैन तार्किकोंने मंच पर प्रवेश किया है और सिद्धसेन दिवाकर विरचित न्यायावतार में सर्वप्रथम अनुमान की व्यवस्थित विचारणा हुई है तथा अकलंक के ग्रन्थों में जैन अनुमान सिद्धांत परिपक्व और पुष्ट बना है। __ प्रत्यक्ष या शब्द (आगम) द्वारा ज्ञात साधन (हेतु, लिंग) से अज्ञात साध्य (लिंगी) का ज्ञान अनुमान है। हम धुआँ, दूर पर्वत पर देखते हैं। उस पर से हम अनुमान करते हैं कि पर्वत पर अग्नि है। यहाँ धुआँ अग्नि का ज्ञान करानेवाला ज्ञापक साधन . है। धुआँ के आधार पर अग्नि का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। अत: अग्नि को साध्य कहा जाता है। यदि दो वस्तुओं के बीच व्याप्य-व्यापकभावसम्बन्ध हो तो ही व्याप्य वस्तु व्यापक वस्तु का ज्ञान कराती है। साधन हमेशां व्याप्य होता है और साध्य हमेशां व्यापक होता है। इस सम्बन्ध को व्याप्ति कहा जाता है। जिस स्थान में साध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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