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________________ जैनदर्शन में मतिज्ञान तत्तावच्छिन्न रूप में ग्रहण करती है। प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम आदि प्रमाणों की उत्पत्ति स्मृति के बिना संभवित नहीं है। अत: प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाणों की जनक होने से भी स्मृति प्रमाण हैं । 30 जैसे प्रत्यक्ष विसंवादी हो तब उसे हम अप्रमाण मानते हैं वैसे स्मृति भी विसंवादी हो तब उसे भी अप्रमाण मानना, अन्यथा उसे भी प्रत्यक्ष के समान ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करनी चाहिए। और अर्थजन्यत्व होना या न होना प्रमाणता और अप्रमाणता का कारण नहीं है, क्योंकि ज्ञान का अर्थजन्यत्व सार्वत्रिक नहीं है। अत: अविसंवादी होने के कारण स्मृति को प्रमाण के रूप में स्वीकारना ही चाहिए। यह है जैन तार्किकों का मत ।। प्रत्यभिज्ञा - इन्द्रियप्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न होनेवाला, एकता, सादृश्य, वैसादृश्य, प्रतियोगी, आपेक्षिक रूप से संकलना करनेवाला मानसज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। 2 जो कि 'वह ही यह है' यह प्रत्यभिज्ञान में 'वह' अंश स्मरण का विषय है और 'यह' अंश प्रत्यक्ष का विषय है, तथापि वह ही यह है' यह समग्र संकलित विषय को - एकत्व को न तो स्मरण ग्रहण कर सकता है या न तो इन्द्रियप्रत्यक्ष। अत: इस संकलित विषय को ग्रहण करनेवाला स्मरण-प्रत्यक्षभिन्न एक स्वतंत्र प्रत्यभिज्ञा नामक स्वतन्त्र प्रमाण जैन तार्किको ने स्वीकृत किया है। वर्तमानग्राही प्रत्यक्ष और अतीतग्राही स्मरणमूलक जितने संकलनात्मक मानस ज्ञान हैं उनको प्रत्यभिज्ञा में जैन तार्किको ने समाविष्ट किया है। जिस एकत्व-स्थायित्व की धुरा पर जगत का समस्त व्यवहार चलता है उस एकत्व को प्रत्यभिज्ञान अविसंवादी रूप से जानता है। 'वह ही यह है' ऐसे ज्ञान को इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं मान सकते क्योंकि इन्द्रियाँ मात्र सन्निकृष्ट और वर्तमान विषय को ही जान सकती है जब कि वह अंश तो असन्निकृष्ट और अतीत है। उसी प्रकार 'वह ही यह है ऐसे ज्ञान को स्मरण भी नहीं मान सकते क्योंकि स्मरण मात्र अतीत और असन्निकृष्ट को ही जान सकता है जब कि 'यह' अंश तो वर्तमान और सन्निकृष्ट है। इन्द्रियप्रत्यक्ष और स्मरण दोनों में से एक भी वह और यह दोनों में व्याप्त - अतीत और वर्तमान दोनों में व्याप्त - एकत्व को ग्रहण नहीं कर सकते। अत: एकत्वग्राही प्रत्यभिज्ञा को जैन स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। 3 बौद्ध एकत्व को - स्थायित्व को असत् मानते हैं। अत: एकत्वग्राही प्रत्यभिज्ञा उनके अनुसार नितान्त भ्रान्त ज्ञान ही है। उपरान्त वे प्रत्यभिज्ञा को कोई एक ज्ञान नहीं मानते परन्तु प्रत्यक्ष और स्मरण दोनों का मिश्रण मात्र मानते हैं। जैन बौद्ध मत का खण्डन करते हैं। नैयायिक प्रत्यभिज्ञा को इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ही मानते हैं। वे उसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। उनके मतानुसार संस्कार या स्मरण रूप सहकारी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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