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________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान होना और उन को भी अपनी अपनी रीति से सत्यान्वेषण करने में सहाय करने की इच्छा होना। (इ) आस्तिक्य : किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी भाषा में किसी भी रीति से प्रस्तुत किये गये सत्य का स्वीकार करने में मन का खुलापन, तत्परता । यह चित्त की रचनात्मक और विध्यात्मक (positive) मानसिकता है। दूसरे के मत प्रति भी आदरभाव और उस मत में निहित सत्य को खोज कर स्वीकारने की मानसिक तत्परता । आस्तिक्य श्रद्धा ही है। षट्खण्डागम की धवला टीका के अनुसार इन प्रशमादि गुणों की अभिव्यक्ति ही सम्यग्दर्शन है, श्रद्धा है। अर्थात् प्रशमादि श्रद्धा के चिह्न नहीं हैं अपि तु स्वयं श्रद्धा है।29 चित्तशुद्धि, प्रसाद, सत्यग्रहण की योग्यता का ही विस्तार प्रशमादि है। वास्तव में इस श्रद्धा को नैसर्गिक श्रद्धा कह सकते हैं और यह श्रद्धा ही श्रवण के पूर्व की श्रद्धा है। उपर्युक्त समग्र चर्चा से स्पष्ट होता है कि नैसर्गिक श्रद्धा ही श्रवण के पूर्व की श्रद्धा है और उस का अर्थ होता है-चित्तप्रसाद, चित्तशुद्धि, तत्त्वग्रहणयोग्यता । और अधिगमज श्रद्धा श्रवण के पश्चात् होनेवाली श्रद्धा है। अतः यह श्रद्धा श्रुत जीवादि तत्त्वों में विश्वासरूप है। यहाँ ध्यान में रखने की बात यह है कि जो चित्तशुद्धि प्रथम भूमिका में है वह द्वितीय भूमिका में भी अवश्य है । परन्तु द्वितीय भूमिका में कुछ विशेषता है और वह है श्रुत जीवादि तत्त्वों में विश्वास । जैन दर्शन में श्रद्धा की मनन के पश्चात् एवं ध्यान के पश्चात् होनेवाली दो भूमिका का कहीं भी निर्देश नहीं है। जैन मतमें श्रद्धा के विषय ___ अब हम अधिगमज श्रद्धा के विषय का निरूपण करेंगे। वे विषय हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव और अजीव अर्थात् उनका संयोग (बन्ध) यह दुःख है, संसार है । उसका कारण आम्रव है । मोक्ष का कारण संवर और निर्जरा है। इन तत्त्वों को अन्य शब्दों में इस प्रकार बताया जा सकता है-संसार, संसारकारण, मोक्ष और मोक्षकारण । योगभाष्य (२.१५) में कहा गया है कि इदमपि शास्त्रं चतुर्म्यहम्-तद्यथा संसारः संसारहेतुः मोक्षो मोक्षोपायः । बुद्ध ने इन्हें ही चार आर्यसत्य के रूप में प्रस्तुत किया है - दुःख है, दुःखकारण है, दुःखनिरोध सम्भव है, दुःखनिरोध का उपाय है। अध्यात्मशास्त्र में आप्त पुरुष इन्हीं का उपदेश देते हैं। जैनों के सात तत्त्व, योगदर्शन के चतुयूह और बुद्ध के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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