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जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना
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चार आर्यसत्य एक ही बात है । दुःखमुक्ति के इच्छुक को जिनकथित सात तत्त्वों में विश्वास करना चाहिए ।
१. जीव ( = आत्मा = चित्त) : आत्मा, चित्त और मन इन तीन एक एक से बढकर तत्त्वों का निर्देश कम से कम कठोपनिषद् जितना प्राचीन है । वहाँ कहा गया है कि मन से बढ़कर चित्त है और चित्त से बढ़कर आत्मा है । इन तीनों तत्त्वों का सांख्य में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार प्रतिक्षणपरिणामी चित्त से पर कूटस्थनित्य आत्मा का स्वीकार करनेवाली एक परम्परा थी । यह परम्परा दर्शन (एक प्रकार के बोध) को आत्मा का धर्म मानती है 30 और ज्ञान को चित्त का धर्म मानती है । 1 इस परम्परा से भिन्न दूसरी प्राचीन परम्परा थी जो प्रतिक्षणपरिणामी चित्त से पर ऐसी कूटस्थनित्य आत्मा का प्रतिषेध करके ज्ञान और दर्शन दोनों को चित्त के ही धर्म मानती थी ।
प्रथम परम्परा आत्मवादी है जब कि द्वितीय अनात्मवादी है । इस प्रकार बौद्ध एवं जैन दोनों अनात्मवादी हैं । बौद्ध चित्त को ही ज्ञाता और द्रष्टा मानते हैं । जैन जिसे 'आत्मा' नाम देते हैं वह चित्त ही है 2 और वह चित्त ज्ञाता भी है और द्रष्टा भी है । -33 बौद्ध चित्त क्षणिक है, जब कि जैन चित्त ( = आत्मा) प्रतिक्षणपरिणामी है । गहराई से विचार करने पर बौद्ध का क्षणिकवाद और जैन का प्रतिक्षणपरिणामवाद में कोई अन्तर नहीं है। जैनों का आत्मद्रव्य ( = चित्तद्रव्य) ही बौद्धों का चित्तसन्तान है और जैनों के आत्मद्रव्यपर्याय ही बौद्धों के चित्तसन्तानगत क्षणव्यक्ति हैं । जैन महान चिन्तक उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्यगुणपर्याय रास की टीका (टबा) में यही बात कही हैप्रतीत्यपर्यायोत्पादईं एकसंतानपणुं तेह ज द्रव्यलक्षण ध्रौव्य छई । कार्यकारणभाव से क्रमबद्ध प्रतिक्षणोत्पन्न पर्यायों का एकसन्तानत्व ही द्रव्यलक्षण ध्रौव्य है । प्रतिक्षणोत्पन्न और कार्यकारणभाव से सम्बद्ध पर्यायों का एक सन्तान ही द्रव्य है । सन्तान भी क्षणप्रवाह है और द्रव्य भी पर्यायप्रवाह है । और प्रवाह रूप एकत्व ही ध्रौव्य या नित्यत्व है। जैनों ने चित्त को 'आत्मा' नाम देकर अपने को आत्मवादी होने का भ्रम पैदा किया है । उपरान्त, जैन ग्रन्थों में बौद्धों को अनात्मवादी और जैनों को आत्मवादी बताकर, बौद्धों के अनात्मवाद का खण्डन किया गया है । यह वस्तु नितान्त गलत है और मतिभ्रम पैदा करती है । बौद्ध के समान जैन भी अनात्मवादी हैं । जैन चित्त को ही आत्मा या जीव कहते हैं । चित्त और आत्मा समानार्थक है, एक ही तत्त्व के दो नाम हैं।
जैन मतानुसार आत्मा का स्वभाव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र (या अनन्त सुख) और अनन्त वीर्य है । वादिदेवसूरि ने स्थिर हुए जैन मतानुसार आत्मा का
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