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________________ जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना या विभावनाएँ जो जैन साहित्य में उपलब्ध हैं वे नीचे दिए गये हैं : (१) समग्र जैन साहित्य में एक विधान ऐसा प्राप्त हुआ है जिस में नैसर्गिक श्रद्धा और आधिगमिक श्रद्धा का एक ही व्यक्ति में क्रमशः उत्पन्न होती श्रद्धा की दो क्रमिक भूमिकाओं के रूपमें स्पष्ट स्वीकार हुआ है । यह विधान वाचक उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थसूत्रभाष्य की सम्बन्धकारिका १ पर आचार्य देवगुप्त की टीका में उपलब्ध है । देवगुप्त लिखते हैं- नैसर्गिकाद् अवाप्तश्रद्धोऽध्ययनादिभिराधिगमिकम् (श्रद्धानम्) अवाप्नोति । 11 (२) जैन चिन्तक दो प्रकार की श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) का स्वीकार करते हैं-नैश्चयिक श्रद्धा और व्यावहारिक श्रद्धा । नैश्चयिक श्रद्धा को हम श्रवण पूर्व की श्रद्धा मान सकते हैं, क्योंकि उसका लक्षण श्रवण के पूर्वकी श्रद्धा जैसा ही है । महान जैन चिन्तक उपाध्याय यशोविजयजी अपने 'सम्यक्त्व षट्स्थानक चउपईबालावबोध' (गाथा - २ ) में लिखते हैं- 'दर्शन मोहनीयकर्मनो जे विनाश क्षय-उपशम-क्षयोपशमरूप, तेहथी जे निर्मल मलरहित गुणनुं थानक उपजईं ते निश्चय सम्यक्त्व जाणिई ।' इस प्रकार आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि ही निश्चय श्रद्धा है, जब कि उसके कारण उत्पन्न, श्रुत जीवादि तत्त्वों की सत्यता में विश्वास का भाव व्यवहार श्रद्धा है । (३) जैन ग्रन्थों में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) के निम्नोक्त पाँच लिंग, चिह्न दिए गये हैं(अ) प्रशम : रागद्वेष का, मताग्रह का, दृष्टिराग का उपशम ही प्रशम है । (ब) संवेग : संवेग के दो अर्थ हैं : (१) सम् + वेग, सम्- सम्यक् अर्थात् तत्त्व या सत्य प्रति, वेग अर्थात् गति । तत्त्व या सत्य के हेतु तीव्रतम अभीप्सा सह सत्यशोधन के लिए गति करना । (२) सांसारिक बन्धनों से दूर होने की वृत्ति । सत्यशोधन में सांसारिक बन्धन बाधक हैं । 1 (क) निर्वेद : निर्वेद के भी दो अर्थ हैं : (१) सांसारिक विषयों में उदासीनता, रागाभाव, अनासक्ति । विषयों में, सांसारिक भोगो में आसक्ति सत्य की साधना को विकृत करती है, दृष्टि को मोहित करती है, मार्गच्युत करती है । (२) मान्यताओं में अनासक्ति । किसी भी मत में राग न होना, दृष्टिबद्धता न होनी । (ड) अनुकम्पा : अनुकम्पा के भी दो अर्थ हो सकते हैं : (१) दूसरे को दुःखी देखकर दुःखी होना, उसके दुःख को दूर करने की इच्छा होना । (२) दूसरों को सत्यान्वेषण के लिए गभीर प्रयत्न करते हुए देखकर अपने को उन के प्रति सहानुभूति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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