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जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान सनिमित्तक हो सकती है, एक ही श्रद्धा नैसर्गिक या अधिगमज हो सकती है। जैनदर्शन ने एक ही व्यक्ति के विषय में अनिवार्यतः प्रकट होती इन दो क्रमिक भूमिकाएँ हैं ऐसा नहीं माना है। इस प्रकार जैनों ने नैसर्गिक श्रद्धा और अधिगमज श्रद्धा का विकल्प ही माना है; ये दो एक व्यक्ति की चेतना की क्रमिक भूमिकाएँ हैं, ऐसा नहीं माना है। यह है जैनों की स्थिर हुई मान्यता।
पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में जो वास्तविक प्रश्न उठाया है उसी से ही जैनों की इस मान्यता में रहा दोष प्रकट होता है। प्रश्न इस प्रकार है-नैसर्गिक श्रद्धा में जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है या नहीं ? यदि हाँ, तो वह भी अधिगमज श्रद्धा ही हुई, उस से भिन्न उसे नहीं मानना चाहिए। यदि नहीं, तो जिस ने जीवादि तत्त्वों को जाना ही नहीं है, उसे उन में श्रद्धा कैसे हो सकती है ?26 इस वास्तविक प्रश्न का पूज्यपाद ने स्वयं ने जो उत्तर दिया है, वह इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं है। वे कहते हैं कि दोनों में मोहनीय कर्म का उपशम-क्षय-क्षयोपशमरूप आन्तरिक कारण समान है, फिर भी जो बाह्य उपदेश के बिना ही होती है वह नैसर्गिक श्रद्धा है और जो बाह्य उपदेशपूर्वक होती है वह अधिगमज श्रद्धा है। हम देख सकते हैं कि उनके द्वारा उपस्थित किये गये प्रश्न का इस में सचमुच उत्तर ही नहीं है। मान्यता ही इतनी दोषपूर्ण है कि इस प्रश्न का उत्तर देना जैन चिन्तकों के लिए कठिन है।
जैनों को स्वीकार कर लेना चाहिए कि नैसर्गिक श्रद्धा और अधिगमज श्रद्धा क्रमशः एक ही व्यक्ति में क्रम से होनेवाली श्रद्धा की दो भूमिकाएँ हैं। नैसर्गिक श्रद्धा यह श्रद्धा की श्रवण के पूर्व की भूमिका है और अधिगमज श्रद्धा यह श्रद्धा की श्रवण के पश्चात् की भूमिका है। श्रवण के पूर्व की भूमिकावाली श्रद्धा उपदेशजन्य नहीं है; स्वाभाविक रूप से ही उसमें जीवादि तत्त्वों का ज्ञान नहीं होता क्योंकि साधक ने अद्यावधि जीवादि तत्त्वों के सम्बन्ध में कुछ सुना ही नहीं है। अतः श्रवण के पूर्वकी भूमिकावाली श्रद्धा आध्यात्मिक सत्यप्रवण मानसिक झुकाव रूप है। आध्यात्मिक दृष्टि, झुकाव, अभिरुचि आद्योपांत समग्र क्षितिज को बदल देती है। यह अभिरुचि दूसरा कुछ नहीं है किन्तु ऐसी चित्तशुद्धि है, जो साधक को सत्य ग्रहण करने की क्षमता, योग्यता प्रदान करती है। दूसरी ओर, द्वितीय श्रवणोत्तर भूमिकावाली श्रद्धा उपदेशजन्य है और इसलिए उसमें जीवादि तत्त्वों का ज्ञान है, यह श्रद्धा श्रुत जीवादि तत्त्वों में श्रद्धा है। परन्तु उपनिषद27, भगवद्गीता28 तथा बौद्ध धर्म में सुरक्षित प्राचीन परम्परा की स्मृति से पूर्णतः भ्रष्ट ऐसी अपनी गलत मान्यता के कारण जैनों उपर्युक्त सही उत्तर दे नहीं सकते । निर्दिष्ट प्राचीन परम्परा की याद दिलानेवाले अवशेषरूप विधानों
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