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________________ 6 जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान के स्थान पर चारित्र का स्पष्ट उल्लेख करके चारित्र के भीतर निदिध्यासन का समावेश करना उन्हों ने उचित समझा। इस प्रकार प्रस्तुत चार सोपान ही जैनों के तीन मोक्षोपाय, जैनों की रत्नत्रयी हैं । बौद्ध धर्म में श्रद्धा और श्रद्धा की भूमिकाएँ बौद्ध धर्म में सम्मादिट्ठि और श्रद्धा समानार्थक है । आध्यात्मिक साधना और आध्यात्मिक गुणों के मूल में श्रद्धा है । आर्य अष्टांगिक मार्ग का वह प्रथम अंग है । निर्वाण के हेतु जिन गुणों की पुष्टि - वृद्धि आवश्यक मानी गई है उन गुणों की यादी में श्रद्धा का स्थान प्रथम है । बौद्धों द्वारा की गई श्रद्धा की व्याख्या अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । वह इस प्रकार है : 'श्रद्धा चेतसः प्रसादः' (अभिधर्मकोशभाष्य २. २५) । संस्कृत कोशग्रन्थों में भी श्रद्धा के इसी अर्थ को संगृहीत किया गया है । परन्तु प्रसाद | का अर्थ क्या है ? उस का उत्तर है- प्रसादोऽनास्रवत्वम् । (स्फुटार्था ८.७५) । यद्धि निर्मलं तत् प्रसन्नमित्युच्यते । (अभिधर्मदीपवृत्ति पृ. ३६७) । इस प्रकार श्रद्धा का अर्थ है चित्तशुद्धि | राग चित्तमल है। यह मल दूर होने से चित्त विशुद्ध होता है । चित्त का स्वभाव तत्त्वपक्षपात है । परन्तु उस का यह स्वभाव मतासक्ति, मताग्रह, दृष्टिराग से आवृत हो गया है, हानिग्रस्त हो गया है । राग के इस आगन्तुक आवरण को दूर किये जाने पर वह स्वभाव प्रकट होता है । परम्परा से या जन्म से प्राप्त मान्यताओं, सिद्धान्तों और धारणाओं के प्रति जो रागभाव है उस से मुक्त होने के परिणाम स्वरूप जो चित्तशुद्धि प्राप्त होती है, वह चित्तशुद्धि ही श्रद्धा से अभिप्रेत है । ऐसी चित्तशुद्धि प्रत्येक सत्यशोधक के लिए आवश्यक है, क्योंकि ऐसा शुद्ध चित्त ही सम्मुख आये सत्य को ग्रहण करने की योग्यता एवं क्षमता रखता है । इस चित्तशुद्धि के अर्थ में श्रद्धा को हम निराकार कह सकते हैं । उसमें कोई विषयसंभार नहीं है । यहाँ मात्र तत्त्वपक्षपातरूप मानसिक झुकाव है, सत्यप्रवणता है। यह हकीकत है कि जिन मतों, धारणाओं और सिद्धान्तों के मध्य मनुष्य जन्म लेता है और पलता है, उनको वह बिना परीक्षण स्वीकार कर लेता है, इतना ही नहीं उनको अपने चित्त की इतनी गहराई में रख लेता है कि वे उसके व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन जाता है 12 और उन धारणाओं । अपने आपको मुक्त करना उसके लिए अति कठिन बन जाता है । अतः मनुष्य के लिए सर्वाधिक दुष्कर कार्य है उनके प्रति के राग से अपने आपको मुक्त करना । इसीलिए हेमचन्द्राचार्य कहते हैं - दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि । (वीतरागस्तोत्र) । रागमल के दूर होने से प्राप्त चित्तशुद्धि और परिणाम स्वरूप प्रकट हुई सत्यप्रवणता ही श्रद्धा है। श्रद्धा की यह भूमिका श्रवण के पूर्व होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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