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________________ जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना करता है कि इन चार सोपानों के स्वीकार करने में बौद्धों को आपत्ति नहीं है, उन की जो आपत्ति है वह तो चार सोपानों के विषय के रूप में प्रस्तुत की गई आत्मा के प्रति है। आत्मा के स्थान पर धर्म या सत्य होता तो उनको कुछ आपत्ति न होती। धर्म क्या है या सत्य क्या है वह ढूंढने का काम साधक पर छोड़ देना चाहिए। सुत्तनिपात (८३९) में कहा गया है कि : 'न दिट्ठिया न सुतिया न आणेन...ति भगवा विसुद्धिं आह, अदिट्ठिया अस्सुतिया अजाणा...नोपि तेन । (न तो दर्शन से, न तो श्रवण से या न तो ज्ञान से विशुद्धि होती है, ऐसा भगवानने कहा हैं; न तो अदर्शन से, न तो अश्रवण से या न तो अज्ञान से विशुद्धि होती है, ऐसा भगवानने कहा है।) जो कि जहाँ दर्शन, श्रवण ओर ज्ञान का उल्लेख है तथापि ज्ञान में मनन और विज्ञान दोनों का समावेश समझा जा सकता है। इस विधान का तात्पर्य यह है कि धर्म या सत्य को ग्रहण करने में समर्थ चित्तविशुद्धि की प्राप्ति के हेतु दर्शन (श्रद्धा) आदि उपाय आवश्यक होने पर भी पर्याप्त नहीं हैं। संभवतः बौद्ध इन चार आध्यात्मिक सोपानों की योजना में शील का गर्भित की अपेक्षा स्पष्ट उल्लेख की इच्छा रखते हैं। जैन आगमों में प्राचीनतम आचारांगसूत्र (४.१.९) में दिटुं सुतं मयं विण्णायं' यह वाक्यखण्ड प्राप्त है । वह भी उपनिषद् में उल्लिखित उन्हीं चार सोपानों का निर्देश करता है। उपरांत, जैनोंने 'रत्नत्रयी' के रूप में उन चार सोपानों का स्वीकार किया है। उन की रत्नत्रयी हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । वे स्पष्टतः बताते हैं कि इन तीनों के सम्मिलन से मोक्षमार्ग बनता है।' साधक प्रथम दर्शन प्राप्त करता है, पश्चात् ज्ञान और अन्ततः चारित्र। वे दर्शन का अर्थ श्रद्धा करते हैं। सम्यग्ज्ञान में श्रुतज्ञान और मतिज्ञान समाविष्ट हैं।' श्रुतज्ञान और मतिज्ञान मूलतः श्रवण और मनन है। उपनिषदों में भी मनन के लिए ‘मति' शब्द प्रयुक्त है। बृहदारण्यक उपनिषद् (२.४.५) का यह वाक्य गौर से देखें : मैत्रेयि ! आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम् । पूज्यपाद तत्त्वार्थसूत्र की अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में दो स्थानों पर 'मति' शब्द का अर्थ 'मनन करते हैं : 'मननमात्रं वा मतिः ' (१.९) और मननं मतिः' (१.१३) । इसकी विशेष चर्चा मतिज्ञान विषयक व्याख्यान में की जायगी। चारित्र और कुछ नहीं किन्तु चतुर्थ सोपान निदिध्यासन ही है। निदिध्यासन ध्यान है और जैन ध्यान को उत्कृष्ट प्रकार का आभ्यन्तर तप मानते हैं। इस दृष्टि से निदिध्यासन को चारित्र मान सकते हैं। उपरांत, ध्यान को चारित्र की चरम सीमा मान कर यमादि से प्रारम्भ होती हुई ध्यान की समग्र प्रक्रिया में चारित्र का समावेश माना जा सकता है। किन्तु जैन शुद्ध आचार पर विशेष बल देना चाहते हैं, अतः निदिध्यासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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