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________________ ८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ सत्तारसेगवीसासु संकमो णियम पंचवीसाए। णियमा चदुसु गदीसु य णियमा दिट्ठीगए तिविहे ॥३०॥ वावीस पण्ण रसगे सत्तग एक्कारसूणवीसाए। तेवीस संकमो पुण पंचसु पंचिंदिएसु हवे ॥ ३१ ॥ चोदसग दसग सत्तग अट्ठारसगे च णियम वावीसा। णियमा मणुसगईए विरदे मिस्से अविरदे य ॥३२॥ तेरसय णवय सत्तय सत्तारस पणय एक्कवीसाए। एगाधिगाए वीसाए संकमो छप्पि सम्मत्तें ॥३३॥ एत्तो अवसेसा संजमम्हि उवसामगे च खवगे च । वीसा य संकम दुगे छक्के पणए च बोद्धव्वा ॥ ३४ ॥ पच्चीसप्रकृतिक संक्रमस्थानका सत्रह और इक्कीस इन दो प्रतिग्रहस्थानोंमें नियमसे संक्रम होता है। यह संक्रमस्थान चारों गतियोंमें तथा दृष्टिगत अर्थात् मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन तीन मुणस्थानोंमें नियमसे होता है। ॥३०॥ तेईसप्रकृतिक संक्रमस्थानका बाईस, पन्द्रह, सात, म्यारह और उन्नीस इन पाँच प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रम होता है । यह संक्रमस्थान संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें ही पाया जाता है ॥३१॥ बाईसप्रकृतिक संक्रमस्थानका चौदह, दस, सात, और अठारह इन चार प्रतिग्रहस्थानोंमें नियमसे संक्रम होता है। यह संक्रमस्थान मनुष्यगतिके रहते हुए विरत, विरताविरत और अविरतसम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानोंमें ही पाया जाता है ॥३२॥ इक्कीसप्रकृतिक संक्रमस्थानका तेरह, नौ, सात, सत्रह, पाँच और इक्कीस इन छह प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रम होता है। ये छहों प्रतिग्रहस्थान सम्यक्त्व अवस्था में ही पाये जाते हैं ॥३३॥ इससे आगेके बाकीके बचे हुए बीस आदि सब संक्रमस्थान और छह आदि सब प्रतिग्रहस्थान संयमयुक्त उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणिमें ही होते हैं। यथा-बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका छह और पाँच इन दो प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रम जानना चाहिए ॥३४॥ १. कर्मप्रकृति संक्रम गा० १३। २. कर्मप्रकृति संक्रम गा० १४ । ३. कर्मप्रकृति संक्रम 'गा० १५ । ४. कर्मप्रकृति संक्रम गा० १६ । ५. कर्मप्रकृति संक्रम गा० १७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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