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________________ [बंधगो ६ ५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णवरि बारसक०-णवणोक० जह० उक० अंतोमुहुत्तं । ६ ११७. देवेसु मिच्छ०-सम्म०-अणंताणु०चउक्क०सम्मामि० जह० अंतोमु० एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक०-णवणोक० णत्थि अंतरं । एवं भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । णवरि सगद्विदी देसूणा कायव्वा । एवं जाव० । 8 णाणाजीवेहि भंगविचनो। ११८. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । तत्थ ताव अट्ठपदं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ जेसिं पयडीणं संतकम्ममत्थि तेसु पयदं । ११९. कुदो ? अकम्मएहि अव्ववहारादो । एदेणट्ठपदेण दुविहो णिद्देसो ओघादेसभेएण । तत्थोघपरूवणट्ठमाहविशेषता है कि इनमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त पाया जाता है । आशय यह है कि इनमें उपशमश्रेणि सम्भव है अतः उक्त २१ प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तरकाल बन जाता है। विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें प्रारम्भमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अन्ततक वैसा रहे किन्तु अन्तमें मिथ्यात्वमें चला जाय । यह क्रम तिर्यचगतिमें एक पर्यायमें ही बन सकता है, अतः तिर्यचगतिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य कहा है। तथा पंचेन्द्रियतियंचत्रिकमें जो मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वको टिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है सो यह उस उस पर्यायके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे कहा है । इसे नरकके समान यहां भी घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है। ११७. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और सबके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। किन्तु बारह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक जानना चाहिये । किन्तु सर्वत्र उत्कृष्ट अन्तर कहते समय कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-देवगतिमें उपरिम अवयक तक ही गुणस्थान परिवर्तन सम्भव है । इसीसे मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियोंके संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा है। शेष कथन सुगम है । * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है। ६ ११८. अधिकारका निर्देश करनेवाला यह सूत्र सुगम है । अब यहाँ अर्थपदके बतलानेकी इच्छासे अ.गेका सूत्र कहते हैं * जिन प्रकृतियोंकी सत्ता है वे यहाँ प्रकृत हैं। ६११६ क्योंकि जो कर्मभावसे रहित हैं उनका प्रकृतमें उपयोग नहीं। इस अर्थपदके अनुसार ओघ बार आदेशके भेदसे निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे अोधका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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