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________________ गा० २६] एयजीवेण अंतरं __११६. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० ओघो। अणंताणु०चउक्कस्स जह० अंतोमु०, उक० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । बारसक०-णवणोक०' णत्थि अंतरं । एवं पंचिंतिरिक्खतियस्स । णवरि मिच्छ ०-सम्म०-सम्मामि० जह० अंतोमु० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्व० । पंचिं०तिरि०अपज०-मणुसअपज्ज०-अणुदिसादिजाव सव्वट्ठा त्ति सव्वपयडीणं णत्थि अंतरं। मणुसतियम्मि पंचिंदियतिरिक्खभंगो । विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क इनके संक्रामकके जघन्य अन्तरकालका खुलासा जिस प्रकार ओघप्ररूपणाके समय चूर्णिसूत्रोंकी व्याख्या करते हुए किया है उसी प्रकार यहां भी जान लेना चाहिये। तथा इन सबके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल नरककी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षासे वहा है जो अपनी अपनी दृष्टिसे घटित कर लेना चाहिये । उदाहरणार्थ एक ऐसा जीव लो जिसने नरकमें उत्पन्न होनेके अन्तमुहूर्तबाद उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वका संक्रम किया। फिर छह श्रावलि काल शेष रहने पर वह सासादनभावको प्राप्त होकर उसका असंक्रामक हुआ और फिर जीवन भर असंक्रामक ही रहा । किन्तु अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर यदि वह उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके फिरसे मिथ्यात्वका संक्रम करने लगता है तो नरकमें मिथ्यात्वके संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेत स सागर प्राप्त हो जाता है। जो जीव नरकमें उत्पन्न होकर एक समय तक सम्यक्त्वका उद्वेलना संक्रम करके दूसरे समयमें असंक्रामक हो जाता है और फिर आयुके अन्त में उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अतिस्वल्प काल द्वारा मिथ्यात्वमें जाकर सम्यक्त्वका संक्रम करने लगता है उसके सम्यक्त्वके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है । सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी इसी प्रकारसे घटित करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इस जीवको अन्तमें सम्यक्त्व उत्पन्न कराकर उसके दूसरे समयसे ही संक्रामक कहना चाहिये, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्यग्दृष्टिके भी होता है । अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा यदि प्रारम्भमें विसंयोजना करावे और अन्तमें मिथ्यात्वमें ले जाय तो कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। अब शेष रहीं बारह कषाय और नौ नोकषाय सो इनके संक्रामकका अन्तरकाल उपशमश्रेणिमें ही सम्भव है और नरकमें उपशमश्रेणि होती नहीं, अतः नरकमें इनके संक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है ११६. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका अन्तरकाल ओषके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य है। किन्तु बारह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। पंचेन्द्रियतिर्यचत्रिकमें अन्तरकालका कथन इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । तथा इन सबके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिं पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव इनमें सब प्रकृतियोंके संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। बात यह है कि इन मार्गणाओंमें गुणस्थान नहीं बदलता, इसलिये अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रिय तिर्यचके समान भंग है। किन्तु इतनी १. ता. [ णवणोकसाय० ] इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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