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________________ ५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ अणियट्टिभावेणप्पप्पणो द्वाणे पुणो वि संकामओ जादो, लद्धमंतर तोमुहुत्तमेत्तं'। णवरि लोभसंजलणस्साणुपुब्बीसंकमपारंभेणंतरस्सादि कादूण पुणो तदुवरमे लद्धमंतरं काय, । एवमोघेणंतरं गयं। $ ११४. संपहि देसामासियसुत्तेण सूचिदमादेसमोघाणुवादपुरस्सरमुच्चारणमस्सिय परूवेमो । तं जहा अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सम्म० जह० अंतोमु०, सम्मामि० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्हं पि उबड्ड पोग्गलपरियढें । अणंताणु चउकस्स जह० अंतोमु०, उक्क० वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । बारसक०-णवणोक० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । ११५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सम्म०-अणंताणु०चउकस्स जह० अंतोमु०, सम्मामि० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक०-णवणोक०संकामओ णत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइया। णवरि सगढिदी देसूणा। बिता कर जब अनिवृत्तिकरणको प्राप्त होता है तब अपने अपने उपशम करनेके स्थानमें फिरसे संक्रामक हो जाता है और इस प्रकार इनका अन्तर्मुहूर्त अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि आनुपूर्वी संक्रमके प्रारम्भसे लोभसंज्वलनके संक्रमके अन्तरका प्रारंभ करे जो भानुपूर्वी संक्रमके समाप्त होने तक चालू रहता है। इस प्रकार लोभसंज्वलनके संक्रमका अन्तर आनुपूर्वी संक्रमके प्रारम्भसे उसकी समाप्ति तक कहना चाहिये । इस प्रकार ओघसे अन्तरकाल समाप्त हुआ। ६ ११४. अब देशामर्षक सूत्रके द्वारा सूचित होनेवाले आदेशका ओघानुवादपूर्वक उच्चारणाके आश्रयसे कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। तथा तीनोंके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामकका जघन्य अन्तर काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागर है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-इन सब अन्तरकालोंका खुलासा चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान करते समय टीकाकार स्वयं कर आये हैं इसलिये वहांसे जान लेना चाहिये। ६११५. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनम्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा सभी के संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। किन्तु यहां बारह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सब नरकोंके नारकियोंमें अन्तरकालका कथन करना चाहिये । किन्तु उत्कृष्ट अन्तरकाल कहते समय सर्वत्र कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । १. ता. प्रतौ -मंतरमेत्तमंतोमुहुत्तमेत्तं इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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