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________________ गा० २६] भंगविचओ मिच्छत्त-सम्मत्ताणं सव्वजीवा णियमा संकामया च असंकामया च । १६ १२०. कुदो ? मिच्छत्तस्स संकामयासंकामयाणं सम्माइट्ठि-मिच्छाइट्ठीणं सव्वकालमवट्ठाणदंसणादो । एवं सम्मत्तस्स वि । णवरि विवज्जासेण वत्तव्यं । ॐ सम्मामिच्छत्त सोलसकसाय-णवणोकसायाणं च तिणि भंगा कायव्वा। १२१. तं जहा-सिया सव्वे जीवा संकामया। सिया संकामया च असंकामओ च१ । सिया संकामया च असंकामया च २ । धुवसहिदा ३ तिण्णि भंगा। ___एवमोघेण भंगविचओ समत्तो। ६ १२२. आदेसपरूवणद्वमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा-मणुसतियस्स ओघभंगो। णेरइएसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्कस्स ओघो। बारसक०णवणोक० णियमा संकामया। एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा * मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके सब जीव नियमसे संकामक और असंक्रामक हैं। ६ १२०. क्योंकि मिथ्यात्वका संक्रम करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंका और संक्रम नहीं करनेवाले मिथ्याष्टियोंका सर्वदा सद्भाव देखा जाता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिकी अपेक्षा से भी कारणका कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ विपरीतक्रमसे उक्त कारणका कथन करना चाहिये। * सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन भंग करना चाहिये । ६१२१. खुलासा इस प्रकार है-कदाचित् सब जीव संक्रामक हैं। कदाचित् बहत जीव संक्रामक है और एक जीव असंक्रामक है १ । कदाचित् बहुत जीव संक्रामक हैं और बहुत जीव असंक्रामक हैं २ । यहाँ इन दो भंगोंमें ध्र व भंगके मिलाने पर तीन भंग होते हैं।। विशेषार्थ-उक्त कथनका सार यह है कि मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके संक्रामक और असंक्रामक बहुत जीव तो सदा पाये जाते हैं। किन्तु शेष प्रकृतियों के विषयमें तीन भंग हैं। कदाचित् सब जीव संक्रामक हैं यह ध्रुव भंग है । आशय यह है कि शेष प्रकृतियोंके संक्रामकोंका सदा पाया जाना तो सम्भव है किन्तु असंक्रामकोंके विषयमें कोई निश्चित नियम नहीं कहा जा सकता है । कदाचित् एक ही जीव असंक्रामक नहीं होता । जब एक भी असंक्रामक जीव नहीं पाया जाता तब उक्त ध्र व भंग होता है । इसके अतिरिक्त शेष दो भंग स्पष्ट ही हैं। इस प्रकार ओघसे भंगविचय समाप्त हुआ। $ १२२. अब आदेशका कथन करनेके लिये उच्चारणाको बतलाते हैं यथा-मनुप्यत्रिकमें ओषके समान भंग है। अर्थात् अोघसे जो व्यवस्था बतलाई है वह मनुष्यत्रिकमें घटित हो जाती है । नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है । किन्तु बारह कपाय और नौ नोकपायोंकी अपेक्षा नियमसे सब जीव संक्रामक हैं यही एक भंग है बात यह है कि इन इक्कीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंक्रामकोंका भंग उपशमश्रेणिमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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