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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ भंगो । बारसक०-णवणोक० जहण्णुकस्सहिदी भाणिदब्बा । अणुदिशादि जाव सब्वट्ठा त्ति मिच्छ०-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० जहण्णुकस्सहिदी भाणियव्वा । अणंताणु० चउक्कस्स जह० अंतोमु०, उक० सगुकस्सहिदी । एवं जाव० । एयजीवेण अंतरं। १०३. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । * मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? $१०४. सुगमं । ॐ जहण्णण अंतोमुहुत्तं । $ १०५. मिच्छत्तसंकामयस्स ताव उच्चदे-एओ सम्माइट्ठी बहुसो दिट्ठमग्गो मिच्छत्तं गंतूण पुणो वि परिणामपच्चएण सम्मत्तगुणं सव्वजहण्णेण कालेण पडिवण्णो, लद्धमंतरं । एवं सम्मत्तस्स वि । णवरि सव्वजहण्णसम्मत्तकालेणंतरिदो त्ति वत्तव्यं । सम्मामिच्छत्तजहण्णकालो उबरि विसेसिऊण परूविजइ ति ण एत्थ तप्परूवणा कीरदे । बारह कपाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका जयन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कयाय और नौ नोकपायों के संक्रामक का जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कके संक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये । विशेयार्थ—पहले ओघसे और नरकादि गतियोंसे कालका स्पष्टीकरण कर आये हैं । उसे ध्यानमें रख कर देवगति और उसके अवान्तर भेदोंमें उसे घटित कर लेना चाहिये। मात्र देवगतिमें जहाँ जो विशेषता है उसे ध्यानमें रख कर ही यह काल घटित करना चाहिये। * अब एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अधिकार है। ६ १०३. अधिकारका निर्देश करनेवाला यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६ १०४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । १०५. मिथ्यात्वके संक्राम के अन्तरकालका खुलासा सर्व प्रथम करते हैं--जिसे मोक्षमार्गका अनेक बार परिचय मिल चुका है ऐसा एक सम्यग्दृष्टि जीव जब मिथ्यात्वमें जाकर और परिणामवश फिरसे अति स्वल्प काल द्वारा सम्यक्त्व गुणको प्राप्त होता है तब मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल प्राप्त होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वका भी जघन्य अन्तरकाल प्राप्त कर लेना चाहिये। किन्तु यह सबसे जघन्य सम्यक्त्वके कालले अन्तरित होता है ऐसा कथन करना चाहिये । सम्यग्मिथ्यात्वके जवन्य अन्तरकालका आगे. विशेषरूपसे कथन किया जायगा, इसलिये यहां उसका कथन नहीं करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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