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________________ गा० २६] एयजीवेण अंतरं * उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरिय। $ १०६. तं जहा–मिच्छत्तसंकामयस्स ताव उच्चदे--अणादियमिच्छाइट्ठी उवसमसम्मत्तं घेत्तूण छ आवलियाओ अस्थि त्ति सासणं गुणं गंतूणंतरिय देसूणमद्धपोग्गलपरियट्ट परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे सिज्झिदव्वए त्ति सम्मत्तगुणं पडिवण्णो, लद्धमुक्कस्संतरं, पोग्गलपरियट्टस्स देसूणद्धमेत्तमादियंतेसु अंतोमुहुत्तमेत्तकालस्स बहिब्भावदंसणादो। एवं सम्मत्तस्स । णवरि देसूणपमाणं पलिदोवमासंखे०भागो, उवसमसम्मत्तं पडिवजिय मिच्छत्तं गंतूण तेत्तियमेत्तेण कालेण विणा सम्मत्तस्सुव्वेल्लेदुमसक्कियत्तादो । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं । संपहि सम्मामिच्छत्तजहण्णसंकामयंतरगयविसेसपटुप्पायण?मुवरिमसुत्तं भणइ * णवरि सम्मामिच्छत्तस्स संकामयंतरं जहएणेण एयसमग्रो १०७. तं जहा-उवसमसम्माइट्ठी सम्मामिच्छत्तस्स संकामओ होऊण द्विदो सगद्धाए एगसमयावसेसियाए सासादणभावं गंतूणेयसमयमंतरिय पुणो वि तदणंतरसमए संकामओ जादो, लछमेगसमयमेत्तमंतरं । अहवा मिच्छाइट्ठी सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्ल * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। ६ १०६. खुलासा इस प्रकार है। उसमें भी सर्वप्रथम मिथ्यात्मके संक्रामक के उत्कृष्ट अन्तरकालका खुलासा करते हैं-कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुश्रा और छह आवलि कालके शेष रहने पर सासादन गुणस्थानमें जाकर उसने मिथ्यात्वके संक्रमणका अन्तर किया। फिर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक परिभ्रमण करके जब मुक्त होनेके लिये उसे अन्तर्मुहूर्त काल शेष बचा तब वह सम्यक्त्व गुणको प्राप्त हुआ। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तःकाल प्राप्त हो जाता है । यह पुद्गलपरिवर्तनका कुछ कम आधा इसलिये है, क्योंकि इसमेंसे प्रारम्भका एक अन्तर्मुहूर्त और अत्तका एक अन्तर्मुहूर्त कम होता हुआ देखा जाता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वके संकासकके उत्कृष्ट अन्तरकालको घटित करके कहना चाहिये । किन्तु यहाँ कुछ कमका प्रमाण पल्यका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके और मिथ्यात्वमें जाकर तावन्मात्र अर्थात् पल्यके असंख्यातवें भागऽमाण कालके बिना सम्यक्त्वकी उद्वेलना नहीं हो सकती। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी कहना चाहिये । अब सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकके जघन्य अन्तरकालविशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु इतनी विशेपता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जधन्य अन्तरकाल एक समय है। ६१०७. खुलासा इस प्रकार है-कोई एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण करता हुआ स्थित है। उसने अपने सम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रहने पर सासादन गुणस्थानमें जाकर एक समय तक सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमका अन्तर किया और उसके अनन्तर समयमें फिरसे उसका संक्रामक हो गया। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हुआ। अथवा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला जो मिथ्यादृष्टि जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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