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________________ गा० २६ ] एयजीवेण कालो १००. पंचिं०तिरिक्खअपज्ज०--मणुसअपज्ज० सम्म०-सम्मामि० जह) एगस०, उक्क० अंतोमु । सोलसक०-णवणोक० जह० खुद्दाभव०, उक० अंतोमु० । ६ १०१. मणुसतियम्मि पंचिंतिरिक्खभंगो । णवरि बारसक०-णवणोक० जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी। १०२. देवेसु मिच्छ० जह० अंतोमु०, सम्मामि०-अणंताणु० चउकाणं जह० एगस०, उक्क० सव्वेसिं तेत्तीसं सागरो० । सम्मत्त० णारयभंगो । बारसक०-णवणोक० णारयभंगो चेव । भवणवासियप्पहुडि जाव उवरिमगेवजा त्ति मिच्छ०-सम्मामि०अणंताणु० चउकस्स य जह० अंतोमु० एयसमओ, उक. सगढिदी। सम्म० णारय १००. पंचेन्द्रियतियेंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्तप्रमाण है। विशेषार्थ—उक्त दोनों मार्गणाओंमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसलिये यहाँ मिथ्यात्वका संक्रम न होनेसे उसका काल नहीं बतलाया है। एक जीवकी अपेक्षा इन दोनों मार्गणाओंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण सौर उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, इस लिये यहाँ सब प्रकृतियोंके संक्रामकका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त प्रमाण बतलाया है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमणके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है जिसके सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रममें एक समय शेष रहा ऐसा जीव मर कर यदि इन मार्गणाओंमें उत्पन्न हो तो उसके इन मार्गणाओं के रहते हुए उक्त प्रकृतियों के संक्रमका जघन्य काल एक समय भी पाया जाता है। इसीसे यहाँ पर इन दोनों प्रकृतियोंके संक्रमका जघन्य काल एक समय बतलाया है ।। ६१०१. मनुष्यत्रिकमें सब प्रकृतियों के संक्रामकके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यचके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । विशेषार्थ-जो उपशामक जीव उपशमनेणिसे उतरते समय एक समय तक बारह कषाय और नौ नोकषायोंका संक्रम करता है और दूसरे समयमें मर कर देव हो जाता है उसके इनके संक्रमका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। इसीसे यहाँ मनुष्य त्रिकमें उक्त प्रकृत्तियों के संक्रामकका जघन्य काल एक समय बतलाया है। शेष कथन सुगम है। ६१०२. देवोंमें मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है तथा इन सब प्रकृतियोंके संक्रामकका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्वका भंग नारकियोंके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग भी नारकियोंके समान ही है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त तथा सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है। तथा इन सबके संक्रामकका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वका भंग नारकियों के समान है। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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