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________________ २२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ९७. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त०संकाम० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। सम्म० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि०-अणंताणु०संकाम० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । बारसकसाय०-णवणोकसाय०संकाम० केव० ? जह० दसवस्ससहस्साणि, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि । पढमादि जाव सत्तमि ति मिच्छ०संकाम० जह० अंतोमु०, उक्क. सगट्ठिदी देसूणा । सम्म० णिरओघभंगो । सम्मामि० जह० एगसमओ, उक्क० सगढ़िदी। एवमणंताणु०चउक्स्स । णवरि सत्तमाए जह० अंतोमुहुत्तं । बारसक०-णवणोक० जह० जहण्णट्ठिदी, उक्क० उकस्सहिदी । फालिके शेष रहनेपर उसका संक्रम नहीं होता, इसलिये अनन्तानुबन्धियोंके असंक्रामकका जघन्य काल एक समयकम एक आवलिप्रमाण बतलाया है। तथा विसंयोजनाके बाद अनन्तानुबन्धियों की पुनः सत्ता प्राप्त होनेपर एक आवत्ति काल तक उनका संक्रम नहीं होता, इसलिये इनके असंक्रामकका उत्कृष्ट काल एक आवलिप्रमाण बतलाया है। उपशमणिमें बारह कपाय और नौ नोकषाय इनमेंसे विवक्षित प्रकृतिका उपशम होनेके द्वितीय समयमें यदि मरकर यह जीव देवगतिमें चला जाता है तो इनके असंक्रामकका एक समय काल प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ इनके असंक्रामकका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा इन प्रकृतियोंका उपशम काल अन्तमुहूर्त है। इसीसे यहाँ इनके असंक्रामकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है । ६९७. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व के संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट दाल कुछ कम तेतीस सागर है । सम्यक्त्वके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धीके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। बारह कपाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका कितना काल है ? जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरक में मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। बाहर कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ_यहाँ नरक गति और उसके अवान्तर भेदोंमें मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों के संक्रामकका किसका कितना काल है यह बतलाया है। नरक गतिमें सम्यग्दर्शनका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसीसे यहाँ मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर घटित हो जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक पृथिवीमें जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण घटित कर लेना चाहिये। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि पहली पृथिवीमें तो सम्यग्दृष्टि जीव भी मरकर उत्पन्न होता है और वह जीवनभर उसके साथ बना रहता है, अतः वहां कुछ कमका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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