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________________ गा० २६] एयजीवेण कालो १८. तिरिक्खेसु मिच्छ० संकाम० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । सम्म० णारयभंगो। सम्मामि० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदोवमासंखेज्जदिभागेण सादिरेयाणि। अणंताणु०चउकस्स जह० एगसमओ, उक० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । बारसक०-णवणोक० जह० नियम कैसे लागू होगा, सो इसका यह समाधान है कि यद्यपि पहली पृथिवीमें सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होता है यह बात सही है पर ऐसा जीव या तो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि होता है या क्षायिकसम्यग्दृष्टि, इस लिये जब ऐसे जीवके वहां मिथ्यात्वका सत्त्व ही नहीं पाया जाता तब उसके मिथ्यात्वके संक्रमकी बात ही करना व्यर्थ है। सम्यक्त्व प्रकृतिके संक्रामका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षासे बतलाया है। अर्थात् जिसके सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलनामें एक समय बाकी है ऐसा जीव मरकर यदि नरकमें उत्पन्न होता है तो उसके नरकमें सम्यक्त्वके. संक्रामकका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा नरकमें सम्यक्त्वके संक्रामकका उत्कृष्ट काल जो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है सो यह उद्वेलनाके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे बतलाया है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रथिवीमें सम्यक्त्वके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। सामान्यसे नरकमें या प्रत्येक प्रथिवीमें सम्यग्मिथ्यात्व संक्रामकका जघन्य काल एक समय भी सम्यक्त्व समान घटित होता है। हां उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंके होता है इसलिये नरकमें सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रम का उत्कृष्ट काल तेतीस सागर बन जाता है। अनन्तानुबन्धीके संक्रामकका भी उत्कृष्ट काल तेतीस सागर इसी प्रकारसे घटित किया जा सकता है, क्योंकि इसका संक्रम भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंके होता रहता है पर ऐसे जीवके सम्यक्त्व दशामें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं करानी चाहिये । अथवा केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थानकी अपेक्षासे घटित करनेमें भी आपत्ति नहीं है, क्योंकि कोई भी नारकी जीवनभर मिथ्यात्वके साथ रह सकता है। पर इसके संक्रामकका जघन्य काल एक समय इस प्रकार प्राप्त होता है कि जिसने अनन्तानुबन्धोकी विसंयोजना की है ऐसा कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव सासादनमें गया और एक आवलिके बाद एक समयतक उसने अनन्तानुबन्धीका संक्रमण किया। फिर दूसरे समयमें मरकर वह अन्य गतिमें उत्पन्न हो गया तो इस प्रकार इसके नरकमें अनन्तानुबन्धीके संक्रामकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक पृथिवीमें अनन्तानुबन्धीका संक्रमकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिये । किन्तु सातवें नरकमें ऐसे जीयका सासादनमें मरण नहीं होता और मिथ्यात्वों अन्तर्मुहूर्त काल हुए बिना मरण नहीं होता अतः वहाँ जघन्य काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। प्रत्येक नरकमें इसका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। तथा उक्त प्रकृतियोंके अतिरिक्त जो शेष बारह कषाय और नौ नोकषाय बचीं सो इनका सद्भाव नरकमें सर्वदा है और सर्वदा हर हालतमें इनका संक्रम होता रहता है, अतः इनका नरकगति और उसके अवान्तर भेदों में जघन्य और उत्कृष्ट जहाँ जो काल प्राप्त है वहाँ वह बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। $९८. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। सम्यक्त्वके संक्रामकके जघन्य और उत्कृष्ट कालका भंग नारकियोंके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पत्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। बारह कषाय और नौ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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