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________________ ४१ गा० २६] एयजीवेण कालो असंका० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सोलसक०-णवणोक० संकाम० अणादिओ अपज्ज. अणादिजो सपज्ज. सादिओ सपज्ज० । जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो तस्स इमोणिद्देसो-जह• अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । अणंताणु०असंकामओ जह० समयूणावलिया, विसंजोयणाचरिमफालीए तदुवलंभादो । उक्क० आवलिया संपुण्णा, संजुत्तपढमावलियाए तदुवलद्धीदो। सेसाणमसंकामय० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०, उवसमसेढीए तदुवलंभादो । जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकके कालकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ये तीन भंग होते हैं। उनमें से जो सादि-सान्त विकल्प है उसका यह निर्देश है। उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाधं पुद्गलपरावर्तप्रमाण है। अनन्तानुबन्धियोंके असंक्रामकका जघन्य काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण है, क्योंकि विसंयोजनाकी अन्तिम फालिके आश्रयसे यह काल उपलब्ध होता है। उत्कृष्ट काल पूरी एक अवलिप्रमाण है, क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंसे संयुक्त होनेपर प्रथम आवलि के समय यह काल उपलब्ध होता है। शेष प्रकृतियों के असंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि ये दोनों काल उपशमश्रेणिमें पाये जाते हैं । विशेषार्थ-ओघसे सब प्रकृतियोंके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल कितना है इसका खुलासा पूर्वमें चूर्णिसूत्रों के व्याख्यानके समय कर अ ये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिये। यहाँ इन सब प्रकृतियोंके असंक्रामकके जघन्य और उत्कृष्ट कालका खुलासा करते हैंमिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें संक्रम नहीं होता, अतः इस गुणस्थानका जो जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल है वही मिथ्यात्वके असंक्रामकका जघन्य काल प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहाँ मिथ्यात्वके असंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। तथा सादि-सान्त विकल्पकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका जो उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है वही यहाँ मिथ्यात्वके असंक्रामकका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। इसीसे मिथ्यात्वके असंक्रामकका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण बतलाया है। सम्यक्त्वका संक्रम सम्यग्दृष्टिके नहीं होता, इसलिये सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका जो जघन्य काल है वह सम्यक्त्वके असंक्रामकका जघन्य काल प्राप्त होता है । इसीसे सम्यक्त्वके असंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बतलाया है। तथा उद्वेलनाके अन्तमें प्राप्त हुआ एक समय कम एक आवलिप्रमाण काल, उपशम सम्यक्त्वका अन्तमुहूर्त काल, वेदक सम्यक्त्वका कुछ कम छयासठ सागर काल, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका अन्तमुहूर्त काल और वेदकसम्यक्त्वका पूरा छयासठ सागर काल . इन कालोंका जोड़ साधिक दो छयासठ सागर होता है इसीसे सम्यक्त्वके असंक्रामकका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर बतलाया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जिस क्रमसे उक्त कालोंका निर्देश किया है उसी क्रमसे उन्हें प्राप्त कराना चाहिये । यहाँ सम्यक्त्वकी सत्ता तो है पर संक्रम नहीं होता। सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सासादन और सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें नहीं होता। सासादनका जघन्य काल एक समय और सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसीसे यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वके असंक्रामकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते बतलाया है । अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनाके अन्तमें एक समयकम एक आवलिप्रमाण अन्तिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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