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________________ , जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ यादिकंतस्स आदी कायव्वा । सेसं सुगमं। एवं सेसाणं पि पयडीणं वतव्वं । णवरि सव्वोवसामणाए पडिवादपढमसमए संकमस्सादि कादण देसूणमद्धपोग्गलपरियट्ट साहेयव्वं । ___ एवमोघेण कालो गओ। ९६. संपहि आदेसपरूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-एयजीवेण कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण मिच्छत्तसंकामओ केवचिरं० ? जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० छावहिसागरो० सादिरेयाणि । असंकामओ जह० अंतोमुहुत्तं , उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । सम्मत्त०संकामओ जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। असंकामय० जह० अंतोमु०, उक्क० वेछावद्विसागरो० सादिरेयाणि । सम्मामि०संकाम० जह० अंतोमु, उक्क वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । आवलिकालके बाद संक्रमका प्रारम्भ करावे । इसके आगेका शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका भी उत्कृष्ट संक्रमकाल कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वोपशामनासे च्युत होनेके प्रथम समयमें संक्रमका प्रारम्भ करके उसका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण साध लेना चाहिये । विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व अनादि मिथ्या दृष्टि जीवके नहीं पाय' जाता, इसलिये इन तीन प्रकृतियों के संक्रमकी अपेक्षा अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त ये दो विकल्प बनते ही नहीं। वहाँ केवल सादि-सान्त यही एक विकल्प सम्भव है। किन्तु चारित्रमोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियोंका अनादि कालसे भव्य और अभध्य दोनोंके सत्त्व पाया जाता है । इसलिये इनकी अपेक्षा संक्रमके अनादि-अनन्त, अनादिसान्त और सादि-सान्त ये तीनों विकल्प बन जाते हैं। अनादि-अनन्त विकल्प तो अभव्योंके ही होता है, क्योंकि अभव्योंके अनादि कालसे इन पच्चीस प्रकृतियोंका संक्रम होता आ रहा है और अनन्त कालतक होता रहेगा। किन्तु शेष दो विकल्प भव्योंके ही होते हैं। उनमेंसे अनादि-सान्त विकल्प उन भव्योंके होता है जिन्होंने एकबार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और चारित्रमोहनीयकी शेष प्रकृतियोंकी उपशामना की है। अब रहा तीसरा विकल्प सो उसका खुलासा टीकामें ही किया है। सुगम होनेसे उसका निर्देश पुनः यहाँ नहीं किया गया है। इस प्रकार ओघसे कालका कथन समाप्त हुआ। ६६. अब आदेशका कथन करनेके लिये उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा - एक जीवकी अपेक्षा कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध निर्देश और आदेश निर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वके संक्रामकका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। मिथ्यात्वके असंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वके संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ? असंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। असंक्रामकका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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