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________________ गा० २६ ] एयजीवेण कालो भावादो । तम्हा उत्तसेसाणं चरित्तमोहणीयपयडीणं पणुवीसण्हं पि संकामयस्स तिण्णि भंगा कायव्वा । तं जहा--अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो चेदि । आदिल्लदुगं सुगम, तत्थ जहण्णुकस्सवियप्पाणमसंभवादो । इयरत्थ जहण्णुकस्सकालणिदेसट्टमुत्तरसुत्तावयारो ___® तत्थ जो सो सादिनो सपज्जवसिदो जहएणेण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट।। ९५. तत्थ 'जहण्णेणंतोमुहुत्तं'इदि उत्ते अणंताणुबंधो विसंजोएदूर्ण संजुत्तस्स पुणो वि सव्वजहण्णेण कालेण विसंजोयणाए वावदस्स जहण्णसंकमकालो घेत्तव्यो । सेसाणं पि सव्वोवसामणाए सेढीदो पडिवदिदस्स अंतोमुहुत्तेण पुणो वि सव्वोवसामणाए वावदस्स जहण्णकालो वत्तव्यो। 'उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियटुं' इदि उत्ते पोग्गलपरियट्टकालस्सद्धं देणं घेत्तव्वं, अद्धपोग्गलपरियट्टस्स समीवं उबड्डपोग्गलपरियट्टमिदि गहणादो । तत्थाणताणुबंधीणमुक्कस्ससंकमकाले भण्णमाणे अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तमुप्पाइय उवसमसम्मत्तकालभंतरे अणंताणुबंधिं विसंजोइय पुणो तिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अत्थि त्ति आसाणं पडिवण्णस्स आवलिकरनेवाले शिष्य जनोंका उपकार करनेके लिये अन्वय और व्यतिरेकरूपसे प्ररूपणा करनेमें कोई दोष नहीं आता। इसलिये पूर्वोक्त प्रकृतियोंमेंसे जो चारित्रमोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियाँ शेष बची हैं उनके संक्रामकके कालकी अपेक्षासे तीन भंग करने चाहिये । यथा-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमेंसे प्रारम्भके दो भंग सुगम हैं, क्योंकि उनमें जघन्य और उत्कृष्ट ये भेद सम्भव नहीं है । अब जो शेष बचा तीसरा भंग है सो उसके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्देश करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है * उनमें जो सादि-सान्त भंग है उसका जघन्य काल अन्तर्मुहते है और उत्कृष्ट काल उपाधं पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । ६५. सूत्रमें 'तत्थ जहण्णेणंतोमुहुत्तं' ऐसा करने पर इससे अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके संयुक्त हुए जीवके फिर भी सबसे जघन्य कालद्वारा विसंयोजना करने पर जो अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य संक्रमकाल प्राप्त होता है वह लेना चाहिये । इसी प्रकार सर्वोपशामनाके बाद श्रेणिसे च्युत होकर अन्तर्मुहूर्तमें फिर भी सर्वोपशामनामें लगे हुए जीवके शेष प्रकृतियोंका भी जयन्य संक्रमकाल कहना चाहिये । तथा सूत्र में 'उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट' ऐसा कहने पर उससे पुद्गलपरिवर्तनका कुछ कम आधा काल लेना चाहिये, क्योंकि अर्धपुद्गलपरिवर्तनके समीपका काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तन काल कहलाता है ऐसा यहाँ ग्रहण किया गया है। उसमें सर्व प्रथम अनन्तानुबन्धियोंके उत्कृष्ट संक्रमकालका कथन करते हैं-जब संसारमें रहनेके लिये अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल शेष बचे तब उसके प्रथम समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न कराके उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करावे । फिर उसी उपशमसम्यक्त्वके कालमें जब छह श्रावलिकाल शेष बचे तब उसे सासादनमें ले जावे और एक १ ता प्रतौ -बंधी [ णं ] विसंजोएदूण, प्रा०प्रतौ -बंधीणं विसंजोएदूण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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