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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ९३. तं जहा-अणादियमिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पाइय विदियसमए पयदसंकमस्सादि कादण तत्थ दीहमंतोमुहुत्तकालमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण पलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तमुव्वेल्लेमाणो चरिमफालिमेत्तसम्मामिच्छत्तद्विदिसंतकम्मे सेसे सम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावढि भमिय तत्थंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्तं पडिवण्णो पुव्वविहाणेण उव्वेल्लेमाणो पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण सम्मत्तमुवणमिय विदियछावट्ठिमंतोमुहुत्तूणियमणुपालिय परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो दीहुव्वेलणकालेणुव्वेल्लिज्जमाणं सम्मामिच्छत्तमावलियं पवेसिय असंकामओ जाओ। लद्धो तीहि पलिदोवमासंखेज्जदिभागेहि सादिरेओ वेछावद्विसागरोवमकालो सम्मामिच्छत्तसंकामयस्स । 8 सेसाणं पि पणुवीसंपयडीणं संकामयस्स तिषिण भंगा । ९४, एत्थ सेसग्गहणेणेव सिद्धे पणुवीसंपयडीणमिदि णिद्देसो णिरत्थओ त्ति णासंकणिज्जं, उहयणयावलंबिसिस्सजणाणुग्गहट्ठमण्णय-बदिरेगेहिं परूवणाए दोसा * उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। ६३. यथा-किसी एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके दूसरे समयमें प्रकृत संक्रमका प्रारम्भ किया। फिर वहां सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर मिथ्यात्वमें गया । फिर वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की। किन्तु ऐसा करते हुए सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म अन्तिम फालिप्रमाण शेष रहने पर सम्यत्वको प्राप्त करके प्रथम छयासठ सागर काल तक उसके साथ परिभ्रमण किया। किन्तु इसमें अन्तमुहूर्त कालके शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। और पूर्वविधिसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके सम्यक्त्वको प्राप्त किया। फिर अन्तमुहूर्त कम दूसरे छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वका पालन करके परिणामवश मिथ्यात्वमें गया । फिर सर्वोत्कृष्ट उद्वलना का तके द्वारा उद्वेलना करता हुआ सम्यग्मिथ्यात्वको उदयावलिमें प्रवेश कराके असंक्रामक हो गया। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण प्राप्त होता है। विशेषार्थ_सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों गुणस्थानों में होता है, इसलिये जघन्य काल प्राप्त करनेके लिये इन दोनों गुणस्थानों से किसी एकका जघन्य काल लिया गया है । तथा उत्कृष्ट काल इन दोनों गुणस्थानोंकी अपेक्षासे घटित किया गया है। केवल ध्यान यह रखा गया है कि सम्यग्मिथ्यात्वका निरन्तर संक्रम बना रहे। इस हिसाबसे कालकी गणना करने पर उक्त काल प्राप्त हो जाता है जिसका विस्तारसे निर्देश टीकामें किया ही है । * शेष पच्चीस प्रकृतियोंके संक्रामक जीवके कालकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं। ६४. शंका-यहाँ सूबमें 'शेप' पदका ग्रहण करना ही पर्याप्त है। उसीसे बाकीकी बची हुई पच्चीस प्रकृतियों का ग्रहण हो जाता है, इसलिये 'पणुवीसंपयडीणं' इस पदका निर्देश करना निरर्थक है ? समाधान ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि दोनों नयोंका अवलम्बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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