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गा० २६ ]
सामित्त सव्वावत्थासु संकामओ होइ किं वा अत्थि को वि विसेसो ति आसंकिय तदत्थित्तपदु प्पायणमुत्तरसुत्तं भणइ
* परि आवलियपविट्ठसम्मत्तसंतकम्मियं वज्ज ।
$ ७१. उज्वेल्लणाए चरिमफालिं पादिय ट्ठिदो आवलियपविट्ठसम्मत्तसंतकम्मिओ णाम । तं वज्जिय सेससव्वावत्थासु सम्मत्तसंतकम्मिओ मिच्छाइट्ठी तस्स संकामओ होइ त्ति एसो विसेसो सुत्तेणेदेण परूविदो ।
® सम्मामिच्छत्तस्स संकामो को होइ ? ७२. सुगमं । * मिच्छाइट्ठी उव्वेल्लमाणो ।
७३. एदस्स सुत्तस्सत्थो सम्मत्तसामित्तसुत्तस्सेवं वत्तव्यो। ण केवलमेसो चेव सामिओ, किं तु अण्णो वि अस्थि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तंसत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव सब अवस्थाओंमें सम्यक्त्वका संक्रामक होता है या इसमें कोई विशेषता है इस प्रकारकी आशंका करके उस विशेषताका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसके सम्यक्त्वकी सत्ता आवलिमें प्रविष्ट हो गई है वह सम्यक्त्वका संक्रामक नहीं होता।
७१. उद्वेलनाके द्वारा सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिका पतन करके जो जीव स्थित है वह श्रावलिमें प्रविष्ट हुअा सम्यक्त्वकी सत्तावाला जीव कहलाता है। ऐसे जीवको छोड़कर शेष सब अवस्थाओंमें सम्यक्त्वकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव उसका संक्रामक होता है। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा यह विशेषता कही गई है ।
विशेषार्थ—सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके तो दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता ऐसा स्वभाव है। सम्यग्दृष्टिके अन्य दो दर्शनमोहनोय प्रकृतियोंका तो यथा सम्भव संक्रम सम्भव है पर सम्यक्त्वका संक्रम वहाँ भी नहीं होता। अब रहा केवल मिथ्यात्व गुणस्थान सो इसमें २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले सब जीवोंके सम्यक्त्वका संक्रम होता रहता है, किन्तु जब इसकी आवलिप्रमाण सत्ता शेष रह जाती है तब इसका संक्रम होना बन्द हो जाता है।
* सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? $ ७२. यह सूत्र सुगम है।
* जो मिथ्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर रहा है वह सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक होता है।
६ ७३. जिस प्रकार सम्यक्त्वके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रका अर्थ कहा है उसी प्रकार इस सूत्रका अर्थ कहना चाहिये । केवल यही स्वामी है ऐसी बात नहीं है किन्तु अन्य जीव भी स्वामी है इस प्रकार इस बातके जतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
१. प्रा०प्रतौ सम्मत्तसम्मामिच्छत्तसामित्तसुत्तस्सेव इति पाठः ।
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