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________________ ३० जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ संकाओ हो । कथमेत्युवसंतदंसणमोहणिञ्जम्मि मिच्छत्तस्स संकमसंभवो ति णासंकणिज्जं, उवसंतस्स वि दंसणमोहणिज्जस्स संकमब्भुवगमादो । सासणगुणपडिवण्णस्स पुण उवसंतदंसणमोहणीयस्स सहावदो चैव दंसणतियस्स संकमो णत्थि त्ति घेत्तव्वं । * सम्मत्तस्स संकामत्रो को होइ ? ९ ६९, सुगमं । * पियमा मिच्छाइट्ठी सम्मत्तसंतकम्मियो । $ ७० एत्थ 'णियमा मिच्छाइट्ठि' त्ति एदेण सेसगुणट्टाणवदासो कओ । 'सम्मत्तसंतकम्मिओ' त्ति एदेण वि तदसंतकम्मियस्स पडिसेहो दट्ठव्वो । सो पयदसंकमस्स सामिओ होइ, तत्थ तदविरोहादो । किमेसो सम्मत्तसंतकम्मिओ संक्रामक होते हैं । शंका - जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम कर लिया है उसके मिध्यात्वका संक्रम कैसे सम्भव है ? समाधान - ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्यों कि जिसने दर्शनमोहनीयकी उपशामना की है उसके भी मिध्यात्वका संक्रम स्वीकार किया है । किन्तु सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके यद्यपि दर्शनमोहनीयका उपशम रहता है। तो भी उसके स्वभावसे ही दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ - - सर्व प्रथम मिध्यात्वके संक्रमका स्वामी बतलाया गया है । ऐसा नियम है कि सम्यग्दृष्टि के ही मिध्यात्वका संक्रम होता है अन्यके नहीं, इसलिये चूर्णिसूत्र में मिथ्यात्व के संक्रमका स्वामी सम्यग्दृष्टिको बतलाया है । उसमें भी क्षायिकसम्यग्दृष्टिके तो मिथ्यात्व का सत्त्व ही नहीं पाया जाता है अतः उसे छोड़कर शेष सम्यग्दृष्टियों के ही मिध्यात्वका संक्रम होता है । शेषसे यहाँ वेदकसम्यग्दृष्टि व उपशमसम्यग्दृष्टि जीव लिये गये हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में २८ या २४ प्रकृतियोंकी सत्तावाले वेदकसम्यग्दृष्टि ही मिध्यात्वका संक्रम करते हैं अन्य नहीं इतना विशेष जानना चाहिये । उपशमसम्यग्दृष्टियों में भी सासादनसम्यग्दृष्टियों के सिवा शेष सब मिथ्यात्वका संक्रम करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टियों के भी मिध्यात्त्रका उपशम रहता है फिर भी स्वभाव से वे दर्शनमोहनीयका संक्रम नहीं करते ऐसा नियम है। शेष कथन सुगम है । * सम्यक्त्वका संक्रामक कौन होता है । $ ६६. यह सूत्र सुगम है । * नियमसे सम्यक्त्वकी सत्तावाला मिध्यादृष्टि जीव होता है । ७२. यहां सूत्र में 'णियमा मिच्छाइट्टी' पद है सो इसके द्वारा शेष गुणस्थानोंका faraरण कर दिया है । तथा 'सम्मत्त संतकम्मिश्र' इस पद द्वारा जो सम्यक्त्व की सत्तासे रहित है उसका निषेध जान लेना चाहिये । उक्त प्रकारका जो मिथ्यादृष्टि है वह प्रकृत संक्रमका स्वामी होता है, क्योंकि उसके सम्यक्त्वका संक्रम होनेमें कोई विरोध नहीं आता । क्या यह सम्यक्त्वकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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