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गा० २६]
सामित्त $ ६४. एदम्मि एगेगपयडिसंकमे सामित्तपरूवणमिदाणिं कस्सामो त्ति भणिदं होइ।
मिच्छत्तस्स संकामो को होइ ? .
$ ६५. मिच्छत्तस्स पयडिसंकमस्स सामिओ कदरो होइ ? किं देवो णेरइओ मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा ? इच्चेवमादिविसेसावेक्खमेदं पुच्छासुत्तं ।
* णियमा सम्माइट्ठी।
६६. कुदो ? अण्णत्थ तस्स संकमाभावादो। एदेण सम्माइट्ठी चेव संकामओ होदि ण अण्णो ति अण्णजोगववच्छेदो कदो। सो वि सम्माइट्ठी तिविहो खड्यादिभेदेण । तत्थ सव्वेसि सम्माइट्ठीणमविसेसेण पयदसामित्ते पसत्ते विसेसपदुप्पायणट्ठमाह
ॐ वेदगसम्माइट्टी सव्यो ।
६७. वेदयसम्माइट्ठी सव्यो मिच्छत्तस्स संकामओ होइ । णवरि संकमपाओग्गमिच्छत्तसंतकम्मिओ त्ति पयरणवसेणेत्थाहिसंबंधो कायव्यो, तदण्णत्थ पयदसामित्तासंभवादो।
* उवसामगो च पिरासायो ।
६८. उवसमसम्माइट्ठी च सव्वो जाव णासाणं पडिवजइ ताव मिच्छत्तस्स
६ ६४. अब यहाँ एकैकप्रकृतिसंक्रमके विषयमें स्वामित्वका कथन करते हैं यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है।
* मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ?
६५. मिथ्यात्व प्रकृतिके संक्रमका स्वामी कौन जीव है ? क्या देव है या नारकी है, सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि है। इस प्रकार इत्यादि रूपसे विशेषकी अपेक्षा रखनेवाला यह पृच्छासूत्र है।
* नियमसे सम्यग्दृष्टि होता है ।
६६६. क्यों कि अन्यत्र मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता। यद्यपि इस सूत्र द्वारा सम्यग्दृष्टि ही संक्रामक होता है मिथ्यादृष्टि नहीं इस प्रकार अन्ययोगव्यवच्छेद कर दिया है तथापि वह सम्यग्दृष्टि भी क्षायिक आदिके भेदसे तीन प्रकारका है, इसलिये इन सब सम्यग्दृष्टियोंके सामान्यसे प्रकृत स्वामित्वका प्रसंग प्राप्त होने पर इस विषयकी विशेषताको बतलानेके लिये अगेका सूत्र कहते हैं -
* वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें सब जीव मिथ्यात्वके संक्रामक होते हैं।
६६७. वेदकसम्यग्दृष्टियों में सब जीव मिथ्यात्वके कामक होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि जिनके संक्रमके योग्य मिथ्यात्वका सत्व है वे ही उसके संक्रामक होते हैं इतना प्रकरण वश यहाँपर अर्थका सम्बन्ध कर लेना चाहिये, क्यों कि इसके सिवा अन्यत्र प्रकृत स्वामित्व सम्भव नहीं है।
* उपशामकोंमें भो जो सासादनको नहीं प्राप्त हुए हैं वे मिथ्यात्वके संक्रामक होते हैं। ___६६८. सभी उपशमसम्यग्दृष्टि जब तक सासादनको नहीं प्राप्त होते हैं तब तक मिथ्यात्वके
१. श्रा० प्रतौ कदवरो इति पाठः ।
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