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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ घंधगो ६ * सम्माइटी वा णिरासो। ७४. एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो सुगमो, वेदयसम्माइट्ठी सव्वो उवसामओ णिरासाणो त्ति एदेण मिच्छत्तसामित्तसुत्तेण सरिसवक्खाणत्तादो। एत्थतणविसेसपदुप्पायणट्ठमुवरिमसुत्तं ॐ मोत्तण पढमसमयसम्मामिच्छत्तसंतकम्मियं । 5 ७५. किमट्ठमेसो परिवज्जिदो ? ण, सम्मामिच्छत्तसंतुष्पायणवावदस्स तत्थ संकामणाए वावराभावादो । ण च संतुप्पायणसंकमकिरियाणमक्कमेण संभवो, विरोहादो। ७६. एवं दंसणमोहणीयपयडीणं सामित्रं पदुप्पाइय चारित्तमोहपयडीणं सामित्तमिदाणिं परूवेमाणो तण्णिबंधणमट्ठपदं ताव परूवेइ, तेण विणा तव्विसेस * सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त हुआ सम्यग्दृष्टि भी सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक होता है। ७४. इस सूत्रका भी अर्थ सुगम है, क्योंकि इस सूत्रका व्याख्यान मिथ्यात्वके स्वामित्वका कथन करनेवाले 'वेदयसम्माइट्ठी सव्वो उवसामओ णिरासाणा' इस सूत्रके समान है। अब यहाँ पर जो विशेषता है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं ___* किन्तु जो सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त करनेके प्रथम समयमें स्थित है वह उसका संक्रामक नहीं होता। ७५. शंका-ऐसे जीवका निषेध क्यों किया है ? समाधान-नहीं, क्यों कि जो सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ताके उत्पन्न करनेमें लगा हुआ है उसके उस अवस्थामें संक्रमविषयक क्रिया नहीं होती। ___ यदि कहा जाय कि सत्त्वका उत्पादन और संक्रम ये दोनों क्रियाएं एक साथ बन जायंगी सो भी बात नहीं है, क्यों कि ऐसा होनेमें विरोध आता है। विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्वका मिथ्यात्वमें और सम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रम होता है, इस लिये यहाँ सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक बतलाया है। उसमें भी क्षायिकसम्यदृष्टियोंके सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं होनेसे वे इसके संक्रामक नहीं होते । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें २८, २४ और २३ प्रकृतियोंकी सत्तावाले ही इसके संक्रामक होते हैं अन्य नहीं। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें और तो सबके इसका संक्रम होता है किन्तु जो २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव या जिसके सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व संक्रमके योग्य नहीं रहा है ऐसा २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें इसका संक्रम नहीं होता। मिथ्यादृष्टियोंमें भी जिसके सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व आवलीके भीतर प्रविष्ट हो गया है वह इसका संक्रामक नहीं होता। शेष कथन सुगम है। ७६. इस प्रकार दर्शनमोहनीयकी प्रकृतियोंके संक्रमविषयक स्वामित्वका कथन करके अब चारित्रमोहनीयकी प्रकृतियोंके संक्रमविषयक स्वामित्वका कथन करते हुए सर्वप्रथम इस संक्रमके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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