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उत्तर पय डिट्टिदिवड्डिसंकमे णाणाजीवेहिं भंगविचश्रो
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एयस०,
उक० अंतोमु० | सम्म० -सम्मामि० असंखे० भागहाणी ० जह० उक्क • एयसमओ । दोणिहाणी० णत्थि अंतरं । मणुस ३ मिच्छ० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । वरि असंखे० गुणहाणी० जह० उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं बारसक० - णवणोक० । णवरि अवत्त० तिण्णिसंजल०- पुरिसवेद० असंखे० गुणहाणी० जह० अंतोमुहुत्तं, उक० पुव्वको डिपुधत्तं । अनंताणु० ४ पंचिदियतिरिक्खभंगो । सम्म० - सम्मामि० पंचि०तिरिक्खभंगो | णवरि असं ० गुणहाणी ओघं । आणदादि णवगेवेजा त्ति छब्वीसं पय० विहत्तिभंगो | सम्म० - सम्मामि ० विहत्तिभंगो । णवरि संखे० गुणहाणी असंखे० गुणहाणी णत्थि । अणुद्दिसादि सव्वट्ठे त्तिविहत्तिभंगो । णवरि सम्म० संखे० गुणहाणी णत्थि । एवं जाव० ।
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९८९०. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य। ओघेण छब्बीसं पयडीणं असंखे० भागवड्डि- हाणि - अवट्टि० णियमा अस्थि । सेसपदाणि भणिजाणि । सम्म० -सम्मामि० विहत्तिभंगो । सव्वणेरइय- सव्वतिरिक्खमणुस अपज्ज० देवा जाव सहस्सार ति विहत्तिभंगो | णवरि सम्म० - सम्मामि० असंखे० गुणहाणी णत्थि । मणुसतिए ३ छव्वीसं पयडीणं असंखे० भागहाणि-अवट्ठि० णियमा
समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । दो हानियोंका अन्तरकाल नहीं है । मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्वका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार बारह कषायों और नौ नोकषायों के विषय में जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदका तथा तीन संज्वलन और पुरुषवेद की असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यक्त्र और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका भंग के समान है । नत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इननी विशेषता है कि संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानि नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
८०. नाना जीवों का अवलम्बन लेकर भंगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - घनिर्देश और आदेशनिर्देश । श्रघसे छब्बीस प्रकृतियों की असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्यत्रिकमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं ।
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